संत कबीरदास की जीवनी /Biography of Kabir Das in Hindi
संत कबीरदास जी मध्य युग के युगप्रवर्तक संत और महाकवि थे। वे भक्ति काल की निर्गुण भक्ति के एक प्रमुख कवि थे।
हालांकि भक्ति आन्दोलन का आरम्भ दक्षिण में हुआ। दक्षिण भारत में भक्ति के प्रणेता रामानंद थे और उत्तर भारत में इसका प्रसार कबीरदास जी के द्वारा हुआ। इस जनश्रुति से इसका पता चलता है:
भक्ति द्राविड़ उपजी लाए रामानंद ;
प्रगट किया कबीर ने सप्तद्वीप नवखंड ।
संत कबीरदास का जन्म 1456 ईस्वी और मृत्यु 1575 ईस्वी माना जाता है। इनके जन्म काल, मरण और जीवन से जुड़ी कई घटनाओं से सम्बंधित किंवदंतियाँ जनमानस में प्रचलित हैं। कहा जाता है कि इनका जन्म काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के घर हुआ था। उस विधवा औरत ने समाज के भय से उनको लहरतारा ताल के निकट छोड़ आयी। इनका लालन –पालन नीरू –नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति ने किया।
जात जुलाहा मति कों धीरे, हरषि हरषि गुण रमे कबीर
रामानंद इनके दीक्षागुरु थे। रामानंद रोज प्रात:काल पंचगंगा घाट पर स्नान करने जाते थे। बालक कबीर ने उनसे नाम दीक्षा लेने के लिये उस घाट की सीढ़ियों पर जा पड़े। अँधेरे में रामानंद के चरण कबीरदास जी पर पड़ गए। वे अनायास ही बोल पड़े : ‘राम राम कह.’ यही राम नाम का मंत्र मनुष्य जीवन से सम्बंधित सत्य को जानने में और वैषम्य के दुराग्रहों को तजकर सामाजिक समरसता और सदभाव की स्थापना में सहायक हुआ।
मैं कहता अंखियन की देखी
कबीर लिखते हैं – मसि कागद छुआ नहीं, कलम गहो नहीं हाथ, यानि उनका ज्ञान चिंतन और आत्म निरीक्षण पर आधारित था. “मैं कहता अंखियन की देखी ”। उन्होंने जो ज्ञान प्राप्त किया उसी को निर्भयता पूर्वक अपनी साखियों और पदों के द्वारा आम लोगों तक पहुँचाया। इन्होंने वर्णाश्रम धर्म में प्रचलित कुरीतियों को ही नहीं, लोक में प्रचलित अपधर्म जैसे जादू –टोना, टोटका, मंत्र –तंत्र आदि को भी पहचाना और उस पर जोरदार प्रहार किया.। कबीर साहसी और तेजस्वी कवि थे। उनकी कथनी और करनी में जबरदस्त एकरूपता थी।
अंधविश्वासों पर प्रहार
कोई बात अगर लोगों के बीच कह दिया तो उससे पीछे नहीं हटते थे। वे एक ऐसे कर्मयोगी थे जो अंधविश्वासों की खाई को पाटने के लिये अपना घर जलाने को तैयार थे ऐसा माना जाता था कि जिस व्यक्ति की मृत्यु काशी में होगी वह मरने के बाद अवश्य ही उच्च स्थान को प्राप्त करता है और जो व्यक्ति मगहर में मरेगा वह अगले जन्म में हीन योनी में जन्म लेगा। लोगों में फैले इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिये जीवन के अंतिम समय में कबीर मगहर में जाकर रहने लगे। उन्होंने यह सिद्ध किया कि ‘ एक जीव ते सब जग उपज्या कौन भला कौन मंदा ’ और उसी प्रकार इस अंधविश्वास को भी तोड़ा : ‘जो काशी तन तजै कबीरा तो रामहि कहा निहोरा रे ’.
लोकमंगल की कामना है कबीर के काव्य में
यदि कबीर की रचनाओं को सिर्फ के कवि की रचना के रूप में देखा जाय तो वह जीवन की सहजता के अधिक निकट है। उनकी कविता में छंद, अलंकार, शब्द-शक्ति आदि गौण है और लोकमंगल की कामना का भाव प्रधान है। उनकी वाणी का संग्रह इनके अनुयायियों (followers) ने बीजक के नाम से किया है।
बीजक के तीन भाग हैं : रमैनी, सबद और साखी। रमैनी और सबद में गाने के पद हैं और साखी दोहा छंद में लिखी गयी है। सिखों के गुरु ग्रन्थ साहब में भी कबीर के नाम से ‘पद’ तथा ‘सलोकु’ संग्रहीत हैं। इन रचनाओं में कबीर साहब ने जाति- पाति (caste system), छुआछूत (Untouchability), अन्धविश्वास, रुढ़िवादी दृष्टिकोण, पूजा-अर्चना तथा धार्मिक कर्मकांड का विरोध किया है। वे ऐसे साधक थे जिसने वेदांत के सत्य और पारमार्थिक सत्य को अलग-अलग नहीं माना अपितु सत्य से भक्ति को सहजता पूर्वक प्राप्य बताया।
कबीर की भाषा सधुक्कड़ी थी
कबीर की अभिव्यंजना शैली बहुत सशक्त थी। इनकी भाषा सधुक्कड़ी थी जो मूलतः पूरब की भाषा थी, लेकिन उसमें अन्य बोलियों के शब्द भी मिश्रित थे। इनके काव्य में प्रतीक योजना का सुन्दर निर्वाह हुआ है। ये प्रतीक दांपत्य और वात्सल्य जीवन की विविधता का संकेत करते हैं। इनकी कविताओं में सांकेतिक प्रतीक, पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक एवं प्रतीकात्मक उलटबांसियां के भी उदहारण मिलते हैं।
इस प्रकार संत कबीरदास जी भारतीय धर्म साधना के इतिहास में एक ऐसे महान विचारक और प्रतिभाशाली महाकवि हुए जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घकाल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित करते रहे हैं और सच्चे अर्थों में जन – जीवन का नायकत्व किया है।
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Yogi saraswat says
युग में कबीरदास जी और भी ज्यादा प्रसांगिक हैं ! बेहतरीन आलेख पंकज जी
Pankaj Kumar says
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद योगी सारस्वत जी!
MarathitLyrics says
Bhari article lihilay