तात्या टोपे का अमर बलिदान (Tatya Tope Veer Kunwar Singh Great Martyr Story)
1857 की सशस्त्र क्रांति को भारत का प्रथम स्वाधीनता संघर्ष भी कहा जाता है. इस आन्दोलन का श्री गणेश महान वीर मंगल पांडे के अंग्रेजों के खिलाफ जंग के एलान से किया था. तात्या टोपे भी इस आन्दोलन के एक तेजस्वी सेनानी थे. उनका नाम सुनते ही अंग्रेजों के पसीने छूट जाते थे. कानपुर से लेकर ग्वालियर तक हुए लड़ाइयों में उनके पराक्रम को देख अंग्रेज हतप्रभ रह गए थे. गोरे सैन्य अधिकारी उनका नाम सुनते ही कांपने लगते थे.
नाना साहब पेशवा और राव साहब भी उनकी तलवार चलाने की गति और फुर्ती को देखकर अचंभित रह जाते थे. अंग्रेज सेनापति होम्स तात्या टोपे को पकड़ने के लिए दिन-रात एक किये हुए था. उसका सारा प्रयास विफल हो जाता था. दूसरी ओर तात्या टोपे अंग्रेज़ी सरकार के लिए आतंक बने हुए थे. अब होम्स ने ग्वालियर के सरदार मान सिंह के साथ मिलकर षड़यंत्र कर तात्या को पकड़ने की चाल चली. ७ अप्रैल 1859 को मध्य रात्रि में शिवपुरी के बीहड़ जंगलों में मान सिंह के ठिकाने पर तात्या को अंग्रेजों ने चारों तरफ से घेर लिया.
सैनिक अदालत में तात्या के ऊपर अनगिनत अंग्रेजों की हत्या करने का केस दर्ज किया गया और उनपर मुकदमा चलाया गया. सुनवाई के दौरान तात्या टोपे ने अदालत में गरजते हुए कहा – “मैंने अपने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया है. मैं तोप से उड़ाए जाने या फांसीं पर चढ़ने के लिए सहर्ष तैयार हूँ.”
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18 अप्रैल 1869 को शिवपुरी में तात्या टोपे को फांसी देने के लिए ले जाया जा रहा था. नियम के मुताबिक़ फांसी देने के पहले उनके हाथ को पीछे कर बाँधा जाने लगा तो उन्होंने कहा – “ऐसा करने की कोई जरुरत नहीं है. मैं अपने फांसी के फंदे को स्वयं अपने गले में डालना चाहता हूँ.” ऐसा कह उन्होंने फांसी के फंदे को अपने में डाल लिया और देखते ही देखते फांसी पर झूल गए. ऐसे बलिदानी वीरों की शहादत से ही आज हम आजाद हवा में सांस ले रहे हैं.
भुजा काट गंगा को समर्पित करनेवाले अमर वीर की कहानी (Tatya Tope Veer Kunwar Singh Great Martyr Story)
1857 की क्रांति की ज्वाला बिहार तक पहुँच चुकी थी. जगदीशपुर के 80 वर्षीय राजा कुँवर सिंह के नेतृत्व में उनकी सेना और स्थानीय लोगों ने कई महीनों तक अंग्रेजों की सेना को रोके रखा और लगातार उनके दांत खट्टे करते रहे.
कुँवरसिंह एक बहुत वीर योद्धा और कुशल तलवार वाज थे. उनके तलवार की चपेट में कई अंग्रेज अफसर और सैनिक आ चुके थे और काल कलवित हो चुके थे. वे छापामार युद्ध कर अचानक अंग्रेजों पर हमला बोलकर उनका संहार कर गायब हो जाते थे.
एक दिन बाबू कुँवरसिंह बलिया से कुछ मील दूर शिवराजपुर में अपने सैनिकों के साथ नाव में बैठकर गंगा नदी पार कर रहे थे तभी अंग्रेजी सेना ने उन्हें घेर लिया. गोरे सैनिकों ने नाव पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी. एक गोली कुँवरसिंह की बाईं भुजा में लगी और उनका हाथ लहूलुहान हो गया. कुँवरसिंह ने अपनी तलवार उठाई और कहा- “ गाय की चर्बीयुक्त कारतूस लगने से मेरी यह भुजा अपवित्र हो चुकी है.’ उन्होंने उसे काटकर माँ गंगा को समर्पित कर दिया.
इस घटना के तीन दिन बाद 23 अप्रैल 1858 को घायल वीर कुँवरसिंह की मृत्यु हो गयी. 1857 की महान क्रांति में अपना बलिदान देकर वे महान देशभक्त और बलिदानियों की सूची में शामिल हो गए और सदा- सदा के लिए अमर हो गए. हमने अपनी आजादी इस तरह की हजारों बलिदानों के बाद प्राप्त किया है.
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