बचत क्या है?
बचत करने को कुछ लोग मितव्ययिता से भी जोड़कर देखते हैं. कभी-कभार कुछ लोग मितव्ययिता को कंजूसी के रूप में देखने लगते हैं जो कि गलत है. प्रस्तुत पोस्ट Love Saving Hindi Article में हम बचत को मितव्ययिता के सन्दर्भ में देखने का प्रयास करेंगे.
कई बार आपने देखा होगा कि मितव्ययी व्यक्ति पर लोग कंजूस यानी miser का ठप्पा लगा देते है और उनका उपहास करते हैं और उनका मजाक उड़ाते हैं. पर यह ठीक नहीं है. छोटी से छोटी वस्तु का उचित व सार्थक उपयोग ही मितव्ययिता की श्रेणी में आता है. आवश्यकता से अधिक का खर्च दूसरों को उसके अधिकार से वंचित रखने का दुष्चक्र है.
अन्न की बर्बादी का सच
आमतौर पर देखा गया है कि समारोहों में लोग मुफ्त का माल समझकर जरूरत व क्षमता से कहीं अधिक खाद्द सामग्री जमा कर लेते हैं, जो बाद में बर्बाद होती है. वे भूल जाते हैं कि अन्न का एक कण कीमती है. पूरे ग्रीष्म की गर्मी सहनकर नदी, तालाब, समुद्र से जल वाष्प बनता है, जो बाद में वर्षाकाल में धरती को प्राप्त होता है. फिर आरंभ होता है किसान का कठिन श्रम जो फसल बनकर खेतों में लहलहाता है. यही अन्न आगे चलकर हमारी उदरपूर्ति का माध्यम बनता है. पूरी प्रक्रिया कितना श्रम व समय लेती है, बर्बाद करते समय यदि इसका थोडा भी भान हमें रहे तो हम कभी बर्बादी की ओर नहीं बढ़ेंगे.
आज की भौतिकवादी संस्कृति में पार्टी और जलसों में इतने अन्न की बर्बादी होती है जो कितने गरीब गुरबों का भरपेट भोजन हो सकता है. समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने शान और शौकत के लिए अन्न और अन्य संसाधनों को बर्बाद करते हैं. याद रखिए संसाधन सीमित हैं और आवश्यकता असीमित. मितव्ययिता के साथ उपयोग कर बचा अन्न किसी जरूरतमन्द को जीवन प्रदान कर सकता है. यदि आप दिखावे व लालसा के मोह में पड़े बगैर केवल एक क्षण आंख मूंदकर किसी दरिद्र नारायण का चिंतन भर कर लेंगे तो जीवन भर के लिए इस गुण को अपना सकेंगे.
सबसे बड़े मितव्ययी : गाँधी जी
कहा जाता है कि किसी मुद्दे को लेकर गांधीजी के पास एक पत्र आया. पत्र लिखनेवाले ने उसमें गांधीजी को बहुत बुरा- भला लिखा था. गांधीजी ने पत्र पढ़ें के बाद उसमें लगे पिन को निकालकर रख लिया और कागज के टुकड़े को डस्ट बिन में फेंक दिया. जब उनके सचिव ने उनकी तरफ प्रश्न पूर्ण मुद्रा में देखा तो गांधीजी ने कहा यह पिन मेरे काम की थी, इसलिए इसे मैंने रख लिया.
मितव्ययिता केवल उपरोक्त दृष्टांत के लिये ही सीमित नहीं है, वरन यह जीवन के हर पहलू पर लागू होती है भले ही समय, श्रम, सोच, सुनना, बोलना कुछ भी हो. अंततः यह हमारा, समाज व संस्था का भला ही करती है. गांधीजी इस मामले में सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं. वे कागज के छोटे-छोटे टुकड़े भी संभालकर रखते थे तथा मौनव्रत के दौरान उन्हीं पर लिखकर राय या आदेश अपने सहयोगियों को दिया करते थे. वे कम तथा तुला ही बोलते थे लेकिन पूरी दृढ़ता के साथ धीमी आवाज में.
कवि वल्लुवर की सोच
दक्षिण भारत के कवि वल्लुवर का विवाह वासुकी के साथ हुआ. विवाह के बाद पहले दिन ही भोजन करते समय वल्लुवर ने भोजन परोस रही अपनी पत्नी वासुकी से कहा – जब भी मैं भोजन करने के लिए बैठूं मेरी थाली के पास जल से भरी कटोरी और एक सुई रख देना.
वासुकी ने बात सुनी और ध्यानपूर्वक उनकी आज्ञा का पालन करने लगी. इसी प्रकार सारा जीवन बीत गया. जब वासुकी का अंतिम समय आ गया, तो वल्लुवर ने अपनी पत्नी से उनकी अंतिम इच्छा पूछते हुए कहा – वासुकी, तुम्हारी कोई इच्छा या कामना हो तो वह मुझे बताओ.
वासुकी बोली – मेरी ऐसी कोई कामना नहीं है लेकिन मेरे मन में एक प्रश्न है. यदि आप उचित समझे तो उसका निराकरण करें. विवाह के दूसरे दिन आपने भोजन करते समय मुझसे कहा था कि मैं आपकी थाली के साथ एक कटोरी में जल और सुई साथ रखा करूं, लेकिन आपने उसका कभी उपयोग नहीं किया. मेरे मन में शंका है कि आपने ऐसा आदेश क्यों दिया था ? मुझे कारण ज्ञात हो जाए तो मैं चैन से प्राण त्याग सकूंगी.
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वल्लुवर ने कहा – वासुकी, मैंने भोजन की थाली के साथ पानी की कटोरी और सुई रखने के लिए इसलिए कहा था कि यदि कभी त्रुटिवश तुमसे भात के दाने जमीन पर गिर जाएं तो मैं उन्हें सुई से उठाकर व जल से धोकर पुन: भोजन की थाली में रख सकूं लेकिन तुमने मुझे कभी भी ऐसा करने का मौका नहीं दिया.
दरअसल जो व्यक्ति अपने जीवन में प्राप्त वस्तुओं का मोल समझता है, वह उसे कभी बर्बाद नहीं कर सकता. इससे न केवल हमारे जीवन में वरन परिजनों एवं संगी-साथियों के जीवन में भी अनुशासन आता है. मितव्ययिता की यही कुंजी है.
बूंद-बूंद से घडा भरता है
इस संदर्भ में एक छोटे से उदहारण को देखा जा सकता है. इन दिनों सरकारी और निजी सेवाओं में लगे लोग अपने पास अपना visiting card रखते हैं. कुछ दूकान, शोरूम, कोचिंग संसथान इस तरह के कार्ड बहुत अधिक संख्या में बांटते हैं. आंगतुकों द्वारा विजिटिंग कार्ड द्वारा परिचय प्रदान करने की आदत कमोवेश हर कार्यालय में है.
एक सज्जन आगंतुक के वापस जाते समय कार्ड आगंतुक को लौटा देते थे. अपना कार्ड मांगे जाने पर भी सार्थकता के मद्देनजर मुश्किल से प्रदान करते थे. उनकी सोच इस मामले में बड़ा स्पष्ट था. एक कार्ड की न्यूनतम कीमत यदि एक रूपया भी मानी जाए तो कितने कार्ड प्रतिदिन पूरे देश में बर्बाद होते होंगे और उनका कितना खामियाजा कई पेड़ों को अपने प्राण देकर चुकाना पड़ता होगा. प्रकृति के प्रति इस अन्याय को वे कभी सहन नहीं कर पाए और उनकी इस आदत के प्रति मैं सदा उनका कायल रहा.
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याद रखिए छोटे-छोटे कदमों से ही मंजिल मिलती है. बूंद-बूंद से घडा भरता है. छोटी-छोटी मितव्ययिता बड़े परिणाम की प्राप्ति में सहायक होती है. मकान ईंट दर ईंट ही बनता है. मितव्ययिता या बचत एक सदगुण है. इसे अपनाने में सबका भला है, भले ही लोग आपकी हंसी उडाएं, निंदा करें, आपको कंजूस की उपाधि से नवाजें. ऐसे लोगों ने तो राम और सीता को भी नहीं बख्सा, तो फिर आप भी उनका क्यों सोचें. आपने चन्दन का वृक्ष देखा ही होगा. हजारों भुजंगों के लिपटे रहने पर भी वह अपना गुण धर्म नहीं छोड़ता-चन्दन विष व्याप्त नहीं लिपटे रहे भुजंग. अतएव चन्दन बसिए विषधर नहीं ऐसी में आपके जीवन की सार्थकता है.
इसलिए बचत करने की आदत को अपना गुण बनायें. निरंतर इसका अपने अन्दर विकास करें. सिर्फ अपने बारे में न सोचें बल्कि अपनी भावी पीढी के बारे में भी विचार करें और जहाँ तक संभव हो सके इसका पालन करें. इसका प्रयोग जीवन के किसी भी क्षेत्र में किया जा सकता है. आइये बचत करें और अपनी सोच की दायरे को बढ़ाएं. धन्यवाद!
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Maniparna Sengupta Majumder says
Informative article with effective advice.
Mohan Manohar Mekap says
Nice article and refreshing to read it in hindi.