Parhit Saris Dharam Nahi Bhai Hindi Anuched की यह पंक्ति गोस्वामी तुलसी दास कृत श्री रामचरितमानस से ली गयी है. इसमें भगवान श्री राम भरत की विनती पर साधु और असाधु का भेद बताने के बाद कहते हैं- ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’ और पर पीड़ा सम नहिं अधमाई.’ अर्थात दूसरों की भलाई के समान अन्य कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के जैसा अन्य कोई निम्न पाप नहीं है.
स्वार्थ-निरपेक्ष रहकर दूसरों के हितार्थ कार्य करना परहित है. पर पीड़ाहरण परहित है. पारस्परिक विरोध की भावना घटना और प्रेम भाव बढ़ाना परहित है. दिन, दुखी, दुर्बल की सहायता परहित है. आवश्यकता पड़ने पर निस्वार्थ भाव से दूसरों को सहयोग देना परहित है. मन, वचन और कर्म से समाज का मंगल साधन परहित है.
‘परहित सरिस धर्म नहीं’ का अर्थ हुआ – परहित ही इस लोक में सर्व-सुख तथा सर्व उन्नति का कारण है और मृत्यु होने पर आवागमन से छुटकारा प्राप्त करने का साधन है.
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परहित से व्यक्ति में सक्रिय शारीरिक शक्ति बनी रहती है. शरीर बलवान होकर अपराजेयता को प्राप्त होता है. सहनशील होने से वह अशांत नहीं होता. धैर्य उसे विचलित नहीं होने देता. बल उसमें कुछ कर सकने का सामर्थ्य उत्पन्न करता है. अपना वचन पूरा करने से उसमें आत्मविश्वास जागृत होता है. परिणामस्वरूप परहित से श्री की समृद्धि होती है. सुखपूर्वक लौकिक जीवन में उन्नति करता हुआ व्यक्ति अंत में इंद्रियों को वश में रखते हुए प्राण त्याग कर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होता है.
आप दिव्यमान सूर्य का उदाहरण ले सकते हैं, जो परहित में हमेशा अपने प्रकाश से जग को आलोकित करता रहता है. चन्द्रमा परहित निरत होकर जगत को शीतलता प्रदान कर अपना धर्म निबाहता है. नदियाँ परहित में बहती हैं. गायें परहित के लिये अमृतमय दूध देती हैं. पेड़ अपने सिर पर तीव्र धूप को सहन करता है और अपनी छाया से अपने आश्रितों के संताप दूर करता है. वायु निरंतर बहकर जीवन देती है. समुद्र अपने रत्न परहित लुटाता है. प्रकृति का कण-कण परहित समर्पित है, वह स्वार्थ से ऊपर है.
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‘असुर विनाश’ से श्री राम का अर्थ था. ‘परित्राणाय साधुनाम’ तथा ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ कहकर योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपना धर्म पहचाना. सिख गुरूओं ने हिन्दू धर्म की रक्षा को धर्म माना और उसके लिये निरंतर प्रयासरत रहे. शिवाजी ने हिन्दुओं के लाज की रक्षा करना ही अपना धर्म माना. जनसेवा को गाँधी जी ने अपने अभ्युदय का सम्बल माना. गरीब और पीड़ित की सेवा कर मदर टेरेसा संत बन गयी. तुलसी ने हिन्दू जीवन की व्याख्या में सर्वोच्च कल्याण के दर्शन किए. स्वामी विवेकानन्द ने दीन -दुखियों, पीड़ितों की सेवा में जीवन की कृतार्थता मानी. ये महापुरूष परहित को धर्म समझकर जीवन-भर कार्य करते रहे. इसीलिए ऋद्धि – सिद्धि इनके चरण चूमती रही. यश और कीर्ति इनके पीछे दौडती रही. परलोक में मोक्ष का द्वार उनके स्वागत में खुला रहा.
परहित के समान दूसरा धर्म अर्थात कर्तव्य भी नहीं है. प्यासे को पानी पिलाना, भूखे को भोजन करना, अंधे को मार्ग दर्शाना, नंगे को वस्त्र देना, दरिद्र के दुःख दूर करना, पीड़ित की पीड़ा हरना, पतित को पावन करना, अशांत को शांति देना मानव के सहज धर्म हैं.
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‘परोपकार: पुण्याय ’ कहकर व्यास जी ने परहित को ही धर्म माना. ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ‘ की कामना करके ऋषि-मुनियों ने परहित को धर्म माना.’ परोपकाराय सता विभूतयं ‘ कहकर भतृहरि ने परहित में धर्म के चरम लक्ष्य के दर्शन किए. मैथिलीशरण गुप्त ने ‘मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे’ कहकर परहित में धर्म के कर्तव्य और कृतार्थता को समझा.
परोपकार को धर्म समझने का अर्थ कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलकर अपने तन-मन को कष्टों की अग्नि में झुलसना है. फूलों की सेज त्याग कर कांटों की चुभन से प्यार करना है. दुःख में सुख के, पीड़ा में शांति के, कष्ट में आनन्द के, त्याग में सच्चिदानंद के तथा बलिदान में मोक्ष के दर्शन करना है. प्रभु ईसामसीह का सूली पर चढना, सुकरात का जहर पीना, दधीचि ऋषि का अस्थि-दान, राजा शिवि का अपने शरीर का मांस दान करना, दयानन्द का विषपान और शहीदों का बलिदान परहित धर्म-पालन में सच्चिदानंद की प्राप्ति ही तो है.
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परहित विविध रूप वाला है. व्यक्तिगत रूप में मनुष्य यज्ञ, अध्ययन दान, तप, सत्य, क्षमा, मन और इंद्रियों का संयम तथा लोभ-त्याग द्वारा परहित का धर्म निबाह सकता है. ऋषि-मुनियों का जीवन इसका उदाहरन है. ’धर्मो रक्षति रक्षित:’ को सिधांत वाक्य मान कर धर्म हितार्थ अपना जीवन बिता सकता है. साधु और संन्यासी इसके उदाहरन हैं. समाज में फैली कुरीतियों, कुप्रथाओं, अंध-विश्वासों को दूर करके मनुष्यों को सचेत करने में धर्म की कृतार्थता मान सकता है. महर्षि दयानन्द और डा. हेडगेवार इसके उदाहरन हैं. राष्ट्र-हित को ही धर्म समझने वाले अपने जीवन को मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी मान सकते हैं.
परहित में धर्म के दर्शन करने वाले लोग सैकड़ों यज्ञों से प्राप्त पुन्य से भी अधिक पुन्य लाभ करते हैं. वे इहलोक में सुख, शांति, ऐश्वर्य तथा यश अर्जित करते हैं. तुलसी के वचन इसके प्रमाण हैं – ‘परहित बस जिन्ह के मन मही, तिन्ह कहू जग दुर्लभ कछु नाहीं/ ‘ऐसे लोग अनचाहे में यश के भागी होते हैं. परहित लगी तजहिं जो देही / सन्तत संत प्रशंसहि तेही /’ राम, कृष्ण, दयानन्द, विवेकानन्द आदि सैकड़ों महापुरूष इसके उदाहरण हैं. वे मृत्यु की वेदना को हँसते हुए सहकर मोक्ष के भागी बनते हैं.
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परहित या परोपकार के बहुत सारे उदहारण हमारे आस पास बिखरे पड़े हैं. परोपकार को अपनी आदत बनाइये. आप अपनी सामर्थ्य के अनुसार परहित के कार्य कीजिये. अभी मैंने एक फिल्म देखी. उसमें एक बात मुझे बहुत पसंद आया कि Thank you नहीं बोलने का. आप भी आगे तीन लोगों की मदद कीजिये और आगे भी उनको ऐसा ही करने को कहिये. जैसे जैसे यह चेन बढ़ता जाएगा, लोग उतने परहित के कार्य करने लगेगें.
अजय कुमार झा says
बताइये भला हम ब्लोग्स में झक मारते हुए कहते हैं ..गति मंथर है शिथिल हो रही है , यहाँ तो खजाना बिखरा पड़ा है , समेटते जाइए , सुन्दर ब्लॉग साईट , अब आना जाना लगा रहेगा मित्र
s p verma says
sabhi sant prushon ka khana ek hi hai atah yehi jeevan ka mool mantra avam udeshya hona chahiye
Lalbahadur says
Karno ke karan
Sabse shrest shri ram chandrashekhar
Ji ke charan kamlo me prem se badh kar arthat ek parmatma ki pooja se badh kar dusra dharam nahi hai aur ek parmatma ke alawa dusre ki pooja karna esse bada pap (adharam)nahI hai
Nandani says
Thank you