लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के अनमोल विचार
1. धर्म का सिद्धांत है, केवल कर्म करो; उसके परिणामों पर ध्यान मत दो. एकमात्र कर्म ही हमारा पथ-प्रदर्शक होना चाहिए. ईश्वर नहीं कहता कि कार्य करो या उसका त्याग करो; यह तो सब प्रकृति की क्रीड़ा है.
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2. अत्याचार करने वाला उतना दोषी नहीं होता, जितना उस अत्याचार को सहन करनेवाला.
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3. छोटा हो या बड़ा, धनी हो या निर्धन-प्रत्येक को अपने अधिकार के सम्बन्ध में सोचना चाहिए.
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4. अन्याय और अत्याचार सहनेवाला भी उतना ही दोषी है, जितना अन्याय करनेवाला.
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5. अस्पृश्यता एक रुढी मात्र है. उसे नष्ट करना ही पड़ेगा, भगवान यदि इसे सहता हो तो मैं उसे भगवान मानने को ही तैयार नहीं हूँ और यदि राष्ट्र का इससे अंतिम कल्याण होता हो तो मैं अस्पृश्य लोगों के साथ सभी प्रकार के व्यवहार करने को तैयार हूँ.
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6 .जब अहंकार अपनी शक्ति के भिन्न-भिन्न पदार्थ उत्पन्न करने लगता है, तब उसी में एक बार तमोगुण का उत्कर्ष होकर एक ओर इंद्रिय-सृष्टी की मूलभूत ग्यारह इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं और दूसरी ओर उससे निरिन्द्रिय-सृष्टी के मूलभूत पांच द्रव्य उत्पन्न होते हैं. परन्तु प्रकृति की सूक्ष्मता अब तक स्थिर रही है, अत: अहंकार से उत्पन्न ये सोलह तत्व ही रहते हैं.
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7. हमें किसी प्रकार की हिंसा का प्रयोग नहीं करना है. चूँकि हमारा संघर्ष संवैधानिक होगा, इसके लिए महत साहस की आवश्यकता होगी. हमें साहसपूर्वक और निर्भीक होकर सरकार को बता देना चाहिए कि हम क्या चाहते हैं.
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8. आत्मा से तात्पर्य है परमेश्वर, और चित्त को परमेश्वर के साथ परिचित किये बिना शक्ति नहीं मिलती. यदि एक शरीर जीर्ण हो जाता है तो आत्मा दूसरा शरीर धारण कर लेता है. गीता हमें यही विश्वास दिलाती है. इस आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती. मैं और आगे कहता हूँ – कोई भी सी. आई. डी. इसे जला नहीं सकती. इसी सिद्धांत को मैं सामने बैठे पुलिस अधीक्षक पर तथा सभा में आमंत्रित कलेक्टर पर और सरकारी आशुलिपिक पर, जो मेरे भाषणों को संक्षेप में लिख रहा है, लागू करता हूँ. यह सिद्धांत मर भले ही जाए, पर लुप्त नहीं होगा.
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9. इस संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं पर न्यायालय की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ सत्ता का शासन चलता है. और मुझे लगता है कि शायद ईश्वर की यही इच्छा होगी कि जो काम मैंने अपने सिर लिया है, उसकी प्रगति मेरे मुक्त रहने के बजाय जेल में जाकर दुःख सहने से अधिक होगी.
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10. किसी भी उपदेश को लीजिये, आप देखेंगे कि उसका कुछ- कुछ कारण अवश्य रहता ही है, और उपदेश की सफलता-हेतु शिष्य के मन में उस उपदेश का ज्ञान प्राप्त कर लेने की इच्छा भी पहले से जाग्रत रहनी चाहिये.
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11. कर्तव्य पथ पर गुलाब जल नहीं छिड़का होता और न ही कभी उसमें गुलाब उगते हैं.
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12. आप कठिनाइयों, खतरों और असफलताओं के भय से बचने का प्रयास मत कीजिये. उन सबको तो निश्चित रूप से आपके मार्ग में आना ही है.
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13. अंग्रेजी शिक्षा ने लोगों में नयी आकांक्षाएँ और आदर्श पैदा कर दिए हैं और जब तक ये राष्ट्रीय आकांक्षाएँ पूर्ण नहीं होतीं, तब तक प्रशासनिक अधिकारियों और जनता के बीच उत्पन्न कटुता को सत्ता के विकेन्द्रीकरण की योजना से समाप्त करने की आशा करना व्यर्थ है, चाहे इसके अन्य प्रभाव कुछ भी हों.
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14. बिना कष्ट के कुछ नहीं होता. होम रुल आसमान से आपके हाथों में नहीं आ उतरेगा.
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15. समाज की वर्तमान अपूर्ण अवस्था में भी अनेक अवसरों पर देखा जाता है कि जो कार्य शान्ति से हो जाता है, वह क्रोध से नहीं होता.
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16. मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह ज्ञान जो गीता में केन्द्रित है और सात सौ श्लोकों में निबद्ध है, विश्व के किसी भी दर्शन से – चाहे वह पाश्चात्य हो या और हो – कम नहीं है. ज्ञान –भक्ति –युक्त कर्मयोग ही गीता का सार है.
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17. ज्ञान को हम निर्धनता की श्रेणी में नहीं ला सकते, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के धन को प्राप्त करने की असीमित क्षमता होती है. बिना विवेक (ज्ञान) का जीवन तो बिना ब्रेक की गाडी के समान ही है.
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18. दान करने को अपना धर्म समझकर निष्काम बुद्धि से दान करना चाहिए और यश हेतु एवं अन्य फल की आशा से दान करना – इन दो कृत्यों का बाहरी परिणाम भले ही एक समान है, फिर भी गीता में पहले दान को सात्विक तथा दूसरे को राजस कहा गया है. और यदि वही दान कुपात्रों को दिया जाय तो उसे तामस कहा गया है.
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19. सुख –दुःख भले ही द्विविध हो या त्रिविध, पर इसमें कोई संशय नहीं कि दुःख प्राप्त करने की इच्छा कभी भी, किसी भी मनुष्य को नहीं होती.
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20. मुद्रित पुस्तकों में पाई जानेवाली देवनागरी प्राचीनतम लिपि है, अतः यह सभी आर्यन भाषाओँ की सामान्य लिपि बनने की अधिकारिणी है.
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21. जो देश की सेवा हेतु आवश्यक सुधार लाना चाहता है, उसे बड़ी- बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. वह महसूस करता है कि कानूनों का पालन न करना उचित नहीं है और वह स्वयं को एक अजीब धर्मसंकट में पाता है.
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22. धर्म शब्द का अर्थ है – बंधन. धृ धातु का अर्थ है – धारण करना या वहन करना. हमें आत्मा का परमात्मा से समबन्ध धारण करना है और मनुष्य का मनुष्य से. अतः धर्म का अर्थ हुआ – ईश्वर और मनुष्य के प्रति अपने कर्तव्यों को धारण करना और उसका निर्वाह करना.
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23. नम्रता, प्रेमपूर्ण व्यवहार तथा सहनशीलता से मनुष्य तो क्या देवता भी वश में हो जाते हैं.
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24. जब किसी धर्म कार्य के लिए या लोकोपयोगी कार्य के लिए कोई लखपति एक हजार रूपये और कोई निर्धन एक रुपया देता है, तब दोनों की नैतिक योग्यता एकसमान होती है.
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25. राष्ट्र में नेता का वह स्थान है जो पूरे शरीर में प्राणों को प्राप्त है. जो नेता समय का रुख देखकर नहीं बदलता, समय उसको पीछे छोड़कर आगे निकल जाता है.
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26. दूसरे के मुंह से पानी नहीं पिया जा सकता. वर्तमान व्यवस्था हमें दूसरे के मुंह से पानी पीने को विवश करती है. हमें अपने कुएं से अपना पानी खींचना और पीना चाहिए.
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27. यदि किसी सिद्ध पुरुष को अपना स्वार्थ न साधना हो और फिर भी यदि वह किसी अयोग्य पुरुष को ऐसी वस्तु प्राप्त करने में सहायता करे, जो उसके योग्य न हो तो उस सिद्ध पुरुष को अयोग्य व्यक्ति की सहायता करने तथा योग्य साधु समाज की हानि करने का पाप लगेगा.
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28. मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूंगा, क्योंकि इनमें वह शक्ति है कि जहाँ ये होंगी, वहीँ स्वतः स्वर्ग बन जाएगा.
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29. मनुष्य चाहे इस संसार में रहे या न रहे, किन्तु प्रकृति अपने गुण-धर्म के अनुसार सदैव अपने व्यापार में प्रवृत रहेगी.
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30. उपास्य ब्रह्म के सगुण रहने पर भी जब उसका अव्यक्त के स्थान पर व्यक्त रूप स्वीकृत किया जाता है, तब वह भक्ति कहलाता है.
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31. जैसे मनुष्य भवन- निर्माण का काम इस भय से रोक नहीं देता कि भवन में चूहे अपना बिल बना लेंगे, वैसे हमें अपना काम इस भय से नहीं रोक देना चाहिए कि सरकार अप्रसन्न हो जायेगी.
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32. सफलता के पांच प्रमुख कारकों में दैव यानि भाग्य एक है. वह ईश्वरदत्त एक अवसर है जिसका लाभ उठाना आप पर निर्भर करता है.
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33. भारतवर्ष ही हमारी मातृभूमि और देवता है.
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34. इस शरीरधारी कारखाने में मन एक मुंशी है, जिसके पास बाहर का माल ज्ञानेंद्रियों के द्वारा भेजा जाता है और यह मुंशी उस माल की जांच करता है.
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35. विचार स्पष्ट हों, लक्ष्य ईमानदार हो और प्रयास संवैधानिक हों तो सफलता अवश्य मिलेगी.
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36. शिक्षा वह है हमें अपने पूर्वजों के अनुभवों का ज्ञान देती हैं. संसार में ऐसा कोई व्यवसाय नहीं जिसके लिए शिक्षा की आवश्यकता न हो.
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37. सत्य किसी एक व्यक्ति की बपौती नहीं है, यह तो सार्वभौमिक और सर्वव्यापी है.
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38. माता, पिता तथा गुरु आदि वन्दनीय एवं पूजनीय पुरुषों की पूजा तथा सेवा करना सर्वमान्य धर्मों में से एक प्रधान धर्म समझा जाता है.
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39. राष्ट्र के नैतिक, भौतिक तथा बौद्धिक क्षेत्र में होनेवाली प्रगति उसी स्वतंत्रता पर आश्रित है, जिससे हमें वंचित रखा गया है.
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40. केवल किसी के प्राण हरना ही हिंसा नहीं है, अपितु किसी सचेतन प्राणी को किसी भी प्रकार से दुखी करना भी हिंसा में ही आता है.
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41. स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे.
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Rohh.t says
Good Quotes.. Thanx for publish
Rohit says
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