Lord Buddha Biography in Hindi गौतम बुद्ध का जीवन चरित
गौतम बुद्ध का जन्म अब से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के घर में हुआ था. कहा जाता है कि इनके जन्म से पहले इनकी माता महारानी महामाया को शुभ स्वप्न दिखाई देते थे.
एक बार स्वप्न में उन्होंने देखा कि वे हिमालय-शिखर पर पहुँच गई हैं और गजराज ऐरावत अपनी सूंड में शतदल कमल लिए उनकी परिक्रमा कर रहा है. राज-ज्योतिषियों ने घोषणा की कि यह बहुत मंगल-सूचक स्वप्न है. इसी समय महारानी की इच्छानुसार राजा शुद्धोदन ने उन्हें उनके पिता के पास भेजने की व्यवस्था की. इसी यात्रा में भारत-नेपाल की सीमा पर विद्यमान लुम्बिनी वन में महारानी ने पुत्र को जन्म दिया.
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पुत्र-जन्म के सात दिन बाद महारानी स्वर्ग सिधार गई. उनकी छोटी बहिन गौतमी ने इस बालक का पालन-पोषण किया. इस बालक के जन्म से पिता की सन्तान प्राप्ति की कामना पूरी हुई थी, इसलिए इनका नाम’सिद्धार्थ’अर्थात् सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला रखा गया. कुलगोत्र के अनुसार इन्हें’ गौतम’ कहा जाता है तथा विशेष ज्ञान प्राप्त करने के बाद ये ‘बुद्ध’ नाम से प्रसिद्ध हुए.
सिद्धार्थ की जन्मपत्री देखकर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था – “महाराज! यह आपका महान सौभाग्य है कि आपके कुल में ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ. यह कुमार बत्तीस महापुरूषीय-लक्षणों से युक्त है. यदि यह गृहस्थाश्रम में रहे तो धार्मिक राजा, समुद्रों से घिरी पृथ्वी का स्वामी, चक्रवर्ती राजा होगा, यदि यह प्रव्रज्या लेगा तो यह संसार का महान सम्यक-संबुद्ध होगा.”
सिद्धार्थ बचपन से ही गंभीर स्वभाव का था. अवस्था के साथ-साथ उसकी यह प्रवृत्ति बढती गई. इनकी गम्भीरता और उदासीनता दूर करने के लिए इनका विवाह एक अत्यंत सुन्दरी राजकुमारी यशोधरा से कर दिया गया, जिससे एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ. इसका नाम राहुल रखा गया, किन्तु राजसी ठाठ और सुंदर पत्नी का प्रेम एवं हृद्यांश राहुल का वात्सल्य भी इनकी गंभीरता और उदासीनता को समाप्त न कर सका.
एक दिन सिद्धार्थ भ्रमण करने के लिए निकले. मार्ग में उन्हें रोगी, बूढ़े और मृतक व्यक्तियों के दर्शन हुए. रोगी की रोग से बेचैनी, बूढ़े की कार्य करने में असमर्थता और क्लान्त शरीर को देखकर तथा ‘मृत्यु अनिवार्य है’ ऐसा ज्ञात होने सिद्धार्थ का मन संसार से हटकर आत्मचिंतन में लीन हो गया.
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एकमात्र सन्तान होने के कारण राजा ने भी उनको सांसारिक कर्मों की ओर मोड़ने में कोई कसर न रखी, फिर भी एक रात्रि को जबकि महल के सभी लोग सो रहे थे, सिद्धार्थ चुपके से उठे, पत्नी और पुत्र की ओर एक बार देखा तथा चल दिए.
उन्होंने भयानक जंगलों की खाक छानते और कठिन तपस्या करते हुए शरीर को जर्जर कर लिया, किन्तु मन को शांति तब भी न मिली. अंत में बोधगया (वर्तमान बिहार) में एक पीपल के पेड़ के नीचे समाधि लगाकर बैठ गए. सात वर्ष की घोर तपस्या के बाद यहाँ इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ. अब ये सिद्धार्थ से ‘बुद्ध’ कहलाने लगे. वह वट-वृक्ष भी ’बोद्धि वृक्ष’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ. गया शहर भी ‘बुद्ध गया’ के नाम से विख्यात हुआ.
यहाँ से चलकर बुद्ध सर्वप्रथम काशी के समीप सारनाथ पहुंचे. यहाँ से आपने अपने मत का प्रचार आरंभ किया. इसके बाद उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया. एक बार वे कपिलवस्तु भी गए, जहाँ उनकी पत्नी यशोधरा ने पुत्र राहुल को उन्हें समर्पित कर दिया.
बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण करते समय नवदीक्षित कहता है-
बुद्धं शरणम् गच्छामि
धर्मं शरणम गच्छामि
संघं शरणम गच्छामि
अस्सी वर्ष की अवस्था में संसार को शांति, प्रेम, अहिंसा और सद्भाव का सन्देश देने वाले महान आत्मा परमपद को प्राप्त हुये और उनका महापरिनिर्वान हुआ.
उन्होंने संस्कृत त्यागकर जन-भाषा को अपनाया. उन्होंने कहा कि मायावी संसार में दुःख ही दुख हैं. दुःख आर्य सत्य है. दुःख का कारण तृष्णा है, तृष्णा और दुःख में कारण कार्य का संबंध है. तृष्णा-त्याग और वासना की अलिप्ति दुखों से मुक्त होने के उपाय हैं.
महात्मा बुद्ध का मत प्रधान रूप से प्रधान था. इनके ये पांच सिधांत थे –
(1 ) जीवन में न तो सर्वथा वैराग्य और साधना में लीन रहना चाहिए और न विलास में ही. सादा जीवन व्यतीत करना चाहिए.
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(2) संसार दुखमय है. दुखों का कारण वासना है. तृष्णा की समाप्ति से दुःख दूर होते हैं, तृष्णा को दूर करने के आठ साधन हैं.
(3) सत्य-दृष्टि, सत्य-भाव, सत्य-भाषण, सत्य-व्यवहार, सत्य-निर्वाह, सत्य-पालन, सत्य-विचार और सत्य-ध्यान से मनुष्य इस लोक और परलोक, दोनों में सुखी रह सकता है.
(4) यज्ञ और तपस्या व्यर्थ हैं. वास्तविक शुद्धि के लिए आत्म-परिष्कार आवश्यक है.
(5) जन्म से कोई बड़ा या छोटा नहीं होता. प्रत्येक व्यक्ति को भक्ति का अधिकार है. ब्राह्मणों की महत्ता का बुद्ध ने प्रबल विरोध किया. इसलिए समाज में जो वर्ण ब्राह्मण से जितना दूर था, वह बौद्ध धर्म की ओर उतने ही वेग से खींचा.
अपने सरल नियमों, प्रचारकों की अनथक लगन और राज्याश्रय के कारण बौद्ध धर्म का खूब प्रचार हुआ. भारत में सम्राट अशोक, कनिष्क तथा हर्ष ने इसे स्वीकार किया और इसके प्रचार और प्रसार में सहयोग दिया. इतना ही नहीं लंका, बर्मा, सुमात्रा, जावा, चीन, जापान, तिब्बत आदि देशों में भी इसका खूब प्रचार हुआ.
भारत में इस धर्म के प्रचार से राजा-प्रजा , दोनों में अकर्मण्यता और भीरुता उत्पन्न हुई और वैदिक-धर्म का ह्रास होने लगा. आगे चलकर आदि शंकराचार्य , कुमारिल भट आदि महापुरूषों ने बुद्ध-मत का प्रबल विरोध एवं खंडन कर जनता को वास्तविक वैदिक-धर्म का ज्ञान कराया.
आज के वर्तमान परिस्थिति में जहाँ लोग भौतिक सुख -सुविधाओं के लिए अंधी दौड़ में शामिल हैं, तथागत के उपदेश और उनके द्वारा बताया गया मार्ग हमें सुखी और शांत जीवन की ओर प्रशस्त करता है.
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एक बार और आप का पुनः धन्यवाद
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Buddham Sharanam Gacchami