समर्थ गुरु श्री रामदास जयंती
Samarth Guru Ramdas Birthady Hindi Article/महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के आर्बड परगना में जाम्ब नामक एक पुराना गाँव है. इसी जाम्ब गाँव में श्री सूर्यापन्त जी और उनकी पत्नी रानुबाई एक बहुत ही धार्मिक प्रवृति की दंपत्ति निवास करती थी. श्री सूर्यापन्त जी सूर्य के उपासक थे. इसी उपासना के बल पर 36 वर्षोँ के बाद 1605 ईसवी में रानुबाई के गर्भ से प्रथम पुत्र रत्न का जन्म हुआ. इस बालक का नाम गंगाधर राय रखा गया, जो आगे चलकर श्रेष्ट रायी रायदास के नाम से प्रसिद्द हुआ. उसके उपरांत संवत 1665 (अप्रैल 1608 ईसवी) में चैत्र शुक्ला नवमी को दोपहर 12 बजे से समय श्री रानुबाई ने दूसरे बालक को जन्म दिया. इस बालक का नाम नारायण रखा गया. यही बालक बाद में समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज बने.
यूँ तो भारत संतों और ऋषियों का स्थान रहा है इन सबमें समर्थ गुरु श्री रामदास जी का एक महत्वपूर्ण स्थान है. खासकर महाराष्ट्र में बच्चा बच्चा इनके नाम से परिचित है, ऐसे इनकी प्रसिद्धि पुरे देश में है. कई स्थान पर लोग इनको हनुमान जी का अवतार मानते हैं और देवतुल्य इनकी पूजा अर्चना होती है.
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श्री समर्थ निःसंदेह एक बहुत बड़े महात्मा और विद्वान थे. साथ ही साथ वे राजनीति के बहुत बड़े ज्ञाता थे. छत्रपति शिवाजी ने जिस मराठा साम्राज्य की स्थापना की, उसका बहुत बड़ा श्रेय श्री समर्थ को भी जाता है. लोगों में आम धारणा यह है कि महाराज शिवाजी ने जो कुछ भी किया उसके पीछे प्रेरणा श्री समर्थ की ही थी. श्री समर्थ गुरु रामदास ने पुरे महाराष्ट और बाद में सम्पूर्ण देश में अपने उपदेशों द्वारा राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न की. उन्होंने न सिर्फ स्वराज्य की भावना जगाई बल्कि अपने दौर में इसको लागु भी करवाई और बहुत अंश तक रामराज्य को साकार करने का प्रयास भी किया.
बचपन में उनके माता पिता उनको लेकर संत एकनाथ के पास गए. श्री समर्थ को देखते ही संत एकनाथ जी बोले – ‘यह बालक महावीर जी का अंश है. यह बहुत बड़ा महापुरुष होगा और अपने देश के हित के लिये काम करेगा. गोस्वामी तुलसीदास की तरह ही महावीरजी ने नारायण को अपना दर्शन दिया और भगवान श्री राम का भी दर्शन कराया. इसलिए उनका नाम रामदास रखा गया.
सांसारिक बंधन का त्याग
बारह वर्ष की अवस्था में उनकी माता जी ने उनका विवाह कराना चाहा तो वे जिसके मन में देश और लोगों की भलाई की भावना हो , वह कदापि इस बंधन को स्वीकार नहीं करेगा. और रामदास घर से भाग गए और विवाह की स्थिति तलने तक घर नहीं आये.
दूसरी बार माँ ने शपथ देकर विवाह करने को राजी कर लिया. शादी के समय शुभ मंगल सावधान का मंत्र सुन वे सजग हो गए और गृह त्यागकर वन को चले गए.
तप और साधना
वहां से वे सीधे गोदावरी के ताल पर पंचवटी पहुंचे और साधना में लीन हो गए. बारह वर्षों तक तपस्या में लीन रहे. उसके बाद तीर्थाटन को निकल पड़े. इसके दौरान उन्हें लोगों के मन और विचारों को जानने और समझने का अवसर मिला. सत्य धर्म से लोगों की विचलित होती धारणाओं को अपने ज्ञान और अनुभव द्वारा मजबूत करने का काम किया.
छत्रपति शिवाजी को दीक्षा
इसी क्रम में छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्री समर्थ से दीक्षा लेने का विचार लिया. श्री समर्थ ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से छत्रपति की योग्यता को परख लिया और उन्हें दीक्षा प्रदान की. इतिहास साक्षी है कि छत्रपति शिवाजी ने किस प्रकार श्री समर्थ गुरु के विचारों को लागु किया और एक सर्वप्रिय लोकराज्य की स्थापना की. महाराष्ट में चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी को श्री रामदास जयंती विशेष समारोहपूर्वक मनाई जाती है.
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i b arora says
nice informative post
Pankaj Kumar says
Thanks for your comment!