प्रस्तुत आलेख ‘युवक – भगत सिंह’ शहीदे आजम भगत सिंह द्वारा लिखित है । यह आलेख ‘युवक – भगत सिंह’ हर युवा के लिए गौरव की बात है । एक बार पढ़कर स्वयं आकलन कीजिए ।
युवावस्था मानव-जीवन का वसंत काल है। उसे पाकर मनुष्य मतवाला हो जाता है। हज़ारों बोतल का नशा छा जाता है। विधाता की दी हुई सारी शक्तियां सहस्र-धारा होकर फूट पड़ती हैं। मदांध मातंग की तरह निरंकुश, वर्षाकालीन शोणभद्र की तरह दुर्द्धर्ष, प्रलयकालीन प्रबल प्रभंजन की तरह प्रचंड, नवागत वसंत की प्रथम मल्लिका कलिका की तरह कोमल, ज्वालामुखी की तरह उच्छृंखल और भैरवी संगीत की तरह मधुर युवावस्था है।

उज्ज्वल प्रभात की शोभा, स्निग्ध संध्या की छटा, शरच्चंद्रिका की माधुरी, ग्रीष्म-मध्याह्न का उत्ताप और भाद्रपदी अमावस्या की अर्द्धरात्रि की भीषणता युवावस्था में सन्निहित है।
जैसे क्रांतिकारी की जेब में बमगोला, षड्यंत्री की अंटी में भरा-भराया तमंचा, रण-रस-रसिक वीर के हाथ में खड्ग, वैसे ही मनुष्य की देह में युवावस्था । 16 से 25 वर्ष तक हाड़-चाम के संदूक में संसार भर के हाहाकारों को समेटकर विधाता बंद कर देता है। बरस-दर-बरस तक यह झांझरी नैया मंझधार तूफ़ान में डगमगाती रहती है।
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युवावस्था देखने में तो शस्यश्यामला वसुंधरा से भी सुंदर है, पर इसके अंदर भूकंप की-सी भयंकरता भरी हुई है। इसीलिए युवावस्था में मनुष्य के लिए केवल दो ही मार्ग हैं वह चढ़ सकता है उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर, वह गिर सकता है अधःपतन की अंधेरी खंदक में।
चाहे तो त्यागी हो सकता है युवक, चाहे तो विलासी बन सकता है युवक। वह देवता बन सकता है, तो पिशाच भी बन सकता है। वही संसार को त्रस्त कर सकता है, वही संसार को अभयदान दे सकता है।
संसार में युवक का ही साम्राज्य है। युवक के कीर्तिमान से संसार का इतिहास भरा पड़ा है। युवक रणचंडी के ललाट की रेखा है। युवक स्वदेश की यश-दुंदुभि का तुमुल निनाद है। युवक ही स्वदेश की विजय-वैजयंती का सुदृढ़ दंड है। वह महासागर की उत्ताल तरंगों के समान उद्दंड है। वह महाभारत के भीष्मपर्व की पहली ललकार के समान विकराल है, प्रथम मिलन के स्फीत चुंबन की तरह सरस है, रावण के अहंकार की तरह निर्भीक है, प्रह्लाद के सत्याग्रह की तरह दृढ़ और अटल है। अगर किसी विशाल हृदय की आवश्यकता हो, तो युवकों के हृदय टटोलो। अगर किसी आत्मत्यागी वीर की चाह हो, तो युवकों से मांगो।
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रसिकता उसी के बांटे पड़ी है। भावुकता पर उसी का सिक्का है। वह छंदशास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है। कवि भी उसी के हृदयारविंद का मधुप है। वह रसों की परिभाषा नहीं जानता, पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है। सृष्टि की एक विषम समस्या है युवक। ईश्वरीय रचना-कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक। संध्या-समय वह नदी के तट पर घंटों बैठा रहता है। क्षितिज की ओर बढ़ते जानेवाले रक्त-रश्मि सूर्यदेव को आकृष्ट नेत्रों से देखता रह जाता है। उस पार से आती हुई संगीत-लहरी के मंद प्रवाह में तत्लीन हो जाता है। विचित्र है उसका जीवन। अद्भुत है उसका साहस। अमोघ है उसका उत्साह।
वह निश्चिंत है, असावधान है। लगन लग गयी, तो रात-भर जागना उसके बायें हाथ का खेल है, जेठ की दुपहरी चैत की चांदनी है, सावन-भादों की झड़ी मंगलोत्सव की पुष्पवृष्टि है, श्मशान की निस्तब्धता, उद्यान का विहंग कल-कूजन है। वह इच्छा करे तो समाज और जाति को उद्बुद्ध कर दे, देश की लाली रख ले, राष्ट्र का मुखोज्ज्वल कर दे, बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले। पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में हैं। वह इस विशाल विश्वरंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है।
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अगर रक्त की भेंट चाहिए, तो सिवा युवक के कौन देगा? अगर तुम बलिदान चाहते हो, तो तुम्हें युवक की ओर देखना पड़ेगा। प्रत्येक जाति के भाग्यविधाता युवक ही तो होते हैं।
एक पाश्चात्य पंडित ने ठीक कहा है -It is an established truism that youngmen of today are the countrymen of tomorrow holding in their heads the high destinies of the land. They are the seeds of spring and bear fruit.
भावार्थ यह कि आज के युवक ही कल के देश के भाग्य-निर्माता हैं। वे ही भविष्य की सफलता के बीज हैं।
संसार के इतिहासों के पन्ने खोलकर देख लो, युवक के रक्त से लिखे हुए अमर संदेश भरे पड़े हैं। संसार की क्रांतियों और परिवर्तनों के वर्णन छांट डालो, उनमें केवल ऐसे युवक ही मिलेंगे, जिन्हें बुद्धिमानों ने ‘पागल छोकरे’ अथवा ‘पथभ्रष्ट’ कहा है। पर जो सिड़ी हैं, वे क्या खाक समझेंगे कि स्वदेशाभिमान से उन्मत होकर अपनी लोथों से किले की खाइयों को पाट देनेवाले जापानी युवक किस फौलाद के टुकड़े थे।
सच्चा युवक तो बिना झिझक के मृत्यु का आलिंगन करता है, चोखी संगीनों के सामने छाती खोलकर डट जाता है, तोप के मुंह पर बैठकर भी मुस्कुराता ही रहता है, बेडि़यों की झनकार पर राष्ट्रीय गान गाता है और फांसी के तख़्ते पर अट्टहासपूर्वक आरूढ़ हो जाता है।
फांसी के दिन युवक का ही वज़न बढ़ता है, जेल की चक्की पर युवक ही उद्बोधन-मंत्र गाता है, कालकोठरी के अंधकार में धंसकर ही वह स्वदेश को अंधकार के बीच से उबारता है।
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अमेरिका के युवक-दल के नेता ‘पैट्रिक हेनरी’ ने अपनी ओजस्विनी वक्तृता में एक बार कहा था – Life is dearer outside the prison-walls, but it is immeasurably dearer within the prison-cells, where it is the price paid for the freedom’s fight.
अर्थात जेल की दीवारों से बाहर की जि़ंदगी बड़ी महंगी है, पर जेल की काल-कोठरियों की जि़ंदगी और भी महंगी है; क्योंकि वहां वह स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य-रूप में चुकायी जाती है। जब ऐसा सजीव नेता है, तभी तो अमेरिका के युवकों में यह ज्वलंत घोषणा करने का साहस भी है कि, ‘We believe that when a Government becomes destructive of the natural right of man, it is the man’s duty to destroy that Government.
अर्थात् अमेरिका के युवक विश्वास करते हैं कि जन्मसिद्ध अधिकारों को पद-दलित करनेवाली सत्ता का विनाश करना मनुष्य का कर्तव्य है।
ऐ भारतीय युवक! तू क्यों गफ़लत की नींद में पड़ा बेख़बर सो रहा है। उठ, आंखें खोल, देख, प्राची-दिशा का ललाट सिंदूर-रंजित हो उठा। अब अधिक मत सो। सोना हो तो अनंत निद्रा की गोद में जाकर सो रह। कापुरुषता के क्रोड़ में क्यों सोता है? माया-मोह-ममता त्यागकर गरज उठ –
Farewell ! Farewell! My true Love
The army is on Move;
And if l stayed with you
तेरी माता, मेरी प्रातः स्मरणीय, तेरी परम वंदनीया, तेरी जगदंबा, मेरी अन्नपूर्णा, मेरी त्रिशूलधारिणी, तेरी सिंहवाहिनी, तेरी शस्यश्यामलोज्ज्वला आज फूट-फूटकर रो रही है। क्या उसकी विकलता तुझे तनिक भी चंचल नहीं करती? धिक्कार है तेरी निर्जीवता पर! तेरे पितर भी नतमस्तक हैं इस नपुंसत्व पर यदि अब भी तेरे किसी अंग में टुक हया बाक़ी हो, तो उठकर माता के दूध की लाज रख, उसके उद्धार का बीड़ा उठा, उसके आंसुओं की एक-एक बूंद की सौगंध ले, उसका बेड़ा पार कर और बोल मुक्तकंठ से ‘वंदेमातरम्!’
(‘युवक’ शीर्षक से ऊपर दिया गया भगतसिंह का यह लेख ‘सा. मतवाला’ (वर्ष: 2 अंक सं. 38, 16 मई 1925) में बलवंत सिंह के नाम से छपा था। इस लेख की चर्चा ‘मतवाला’ के संपादकीय कर्म से जुड़े आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी में भी मिलती है। यहां ‘आलोचना’ में प्रकाशित डायरी के उस अंश को भी उद्धृत किया जा रहा है। )
आचार्य शिवपूजन सहाय की डायरी के अंश (पृ. 28)
23 मार्च
संध्या समय सम्मेलन भवन के रंगमंच पर देशभक्त भगतसिंह की स्मृति में सभा हुई।… भगत सिंह ने ‘मतवाला’ (कलकत्ता) में एक लेख लिखा था; जिसको संवार-सुधारकर मैंने छापा था और उसे पुस्तक भंडार द्वारा प्रकाशित ‘युवक-साहित्य’ में संग्रहीत भी मैंने ही किया था। वह लेख बलवंत सिंह के नाम से लिखा था। क्रांतिकारी लेख प्रायः गुमनाम लिखते थे। यह रहस्य किसी को ज्ञात नहीं। वह लेख युवक-विषयक था। वह लाहौर से उन्होंने भेजा था। असली नाम की जगह ‘बलवंत सिंह’ ही छापने को लिखा था।
आलोचना 67-वर्ष 32/ अक्टूबर-दिसंबर, 1983
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