19 वर्ष के कार्ल मार्क्स ने बर्लिन से अपने पिता को यह ख़त लिखा था जिसमें बर्लिन में बिताये अपने एक साल का लेखा-जोखा दिया था। मार्क्स के जीवनीकार फ्रांज़ मेहरिंग ने लिखा है, ‘इस पत्र के द्वारा हम मार्क्स के जीवन के उस एक साल को उनके जीवन के किसी भी और दौर के मुक़ाबले बेहतर तरीके़ से जान पाते हैं।
Letter of Young Marx to His Father in Hindi
यह दिलचस्प दस्तावेज़ अपनी तरुणाई से गुज़रते एक पूरे मनुष्य को उदघाटित करता है, नैतिक और शारीरिक रूप से चुक जाने की हद तक सत्य के लिए जद्दोजहद करता एक मनुष्य, ज्ञान के लिए उसकी कभी तृप्त न होने वाली प्यास, काम करने की अथक क्षमता, उसकी निर्मम आत्मालोचना, और वह भयंकर संघर्ष चेतना जो दिल को भी दरकिनार कर सकती थी, लेकिन तभी जब वह ग़लती करता प्रतीत हो।
मूल पत्र बहुत लंबा है। यहां हम उसका अत्यंत संक्षिप्त रूप दे रहे हैं। हिंदी में शायद यह पहली बार पोस्ट Letter of Young Marx to His Father हो रहा है।
प्रिय पिताजी
बर्लिन,
10 नवंबर, 1837
जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जो सीमा के पत्थरों की तरह एक काल की समाप्ति को चिन्हित करते हैं, लेकिन साथ ही एक नयी दिशा की ओर इशारा भी करते हैं। संक्रमण के ऐसे बिंदु पर हमें अपने भूत और वर्तमान को विचार की तीक्ष्ण दृष्टि से जांचने की आवश्यकता महसूस होती है, ताकि हम अपनी वास्तविक सिथति से परिचित हो सकें।
विश्व इतिहास स्वयं भी ऐसा सिंहावलोकन पसंद करता है, और हर तरफ़ अपनी निगाह डालता है, जिससे प्राय: प्रतिगमन या गतिहीनता का भ्रम होता है, जबकि वास्तव में होता यह है कि इतिहास की आत्मा आराम कुर्सी में जा बैठती है, ताकि वह अपने विचारों को एकाग्र कर सके, अपने ही क्रियाकलापों के ज्ञान से अपना मसितष्क उर्वर बना सके।
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किंतु ऐसे क्षणों में व्यक्ति काव्यात्मक हो जाता है, क्योंकि हर रूपांतरण (metamorphosis ) कुछ हद तक अंतिम गान होता है और कुछ हद तक एक नयी महान कविता का पूर्व संगीत, जो धुंधली किंतु चटकदार आभा के साथ सुरताल साधने की कोशिश कर रहा होता है। किंतु हमारा जो अब तक का तजुर्बा रहा है, उसके लिए स्मारक बनाने की इच्छा हमारे अंदर होनी चाहिए, ताकि भावनाओं में उसकी वही जगह बन सके जो वह व्यावहारिक संसार में खो चुका है; और पिता के दिल से अधिक पवित्र स्थान इसके लिए कौन सा हो सकता है जो सबसे दयालु, निर्णायक, सबसे उत्साहपूर्ण सहभागी और प्रेम का ऐसा सूर्य है जिसकी अग्नि हमारे प्रयासों के आंतरिक केंद्र को ऊष्मा देती है।
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जब मैं आपको छोड़ कर आया तो एक नया संसार मेरे सामने खुला ही था, प्रेम का संसार वास्तव में ऐसा प्रेम जो अपनी अभिलाषाओं में उन्मत्त और आशाहीन था। बर्लिन की यात्रा भी, जो मुझे दूसरी परिस्थितियों में आनंद देती, मुझे छू नहीं पायी।
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जब मैं बर्लिन पहुंचा तो मैंने सभी संबंध तोड़ डाले, बहुत कम लोगों के यहां गया और सो भी अनिच्छापूर्वक और अपने आप को विज्ञान एवं कला में डुबो देने का प्रयत्न किया।
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कविताई एक तात्कालिक सहचरी ही हो सकती थी, होनी चाहिए थी। मुझे कानून की पढ़ाई करनी थी और सर्वोपरि मैं दर्शनशास्त्र से जूझने की ज़रूरत महसूस कर रहा था। दोनों में इतना क़रीबी अंतर्संबंध है कि मैंने हाइनेकिसयस, थिबाट और अन्य स्रोतों को कमोबेश स्कूली लड़के की तरह पढ़ा, बिना आलोचना के, उदाहरणार्थ पन्डेक्टस के पहले दो खंडों का जर्मन में अनुवाद करते हुए; किंतु कानून की पढ़ाई करते हुए मैंने एक विधि -दर्शन स्थापित करने की कोशिश भी की।
मैंने पहले भूमिका के रूप में कुछ तत्वमीमांसा संबंधी समस्याएं रखीं और इस अभागे ग्रंथ में विचार-विमर्श को अंतर्राष्ट्रीय कानून तक ले गया कुल मिला कर क़रीब तीन सौ पृष्ठों की पुस्तक।
जो वास्तव में है और जो होना चाहिए के बीच विरोध से मैं सबसे अधिक परेशान हुआ, जो कि आदर्शवाद की विशेषता है और इसने निम्नलिखित सर्वथा ग़लत वर्गीकरण को जन्म दिया; सबसे पहले सिद्धांत, विचार, निरर्थक धारणाएँ जिन्हें मैंने शालीनतापूर्वक ‘विधि का तत्वज्ञान कहा कानून के हर वास्तविक रूप से अलग और विछिन्न।
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यह फिख़्टे की पुस्तकों की भांति था, बस यह है कि मेरे मामले में इसने अधिक् आधुनिक और सारहीन रूप ले लिया था। इसके अतिरिक्त गणितीय हठधर्मिता (जहां विचारक विषय के इर्द-गिर्द घूमता है, इधर-उधर तर्क करता है, जबकि विषय को कभी इस रूप में सूत्रबद्ध नहीं किया जाता कि वह अपनी अंतर्वस्तु में समृद्ध और सचमुच जीवंत प्रतीत हो) शुरू से ही सत्य तक पहुंचने में अवरोध बनी थी।
गणितज्ञ एक त्रिभुज बनाकर उसकी विशेषताएं दिखला सकता है; लेकिन वह ‘स्पेस में मौजूद एक विचार भर बना रहता है, और उसका आगे कोर्इ विकास नहीं होता। हम एक त्रिभुज के बग़ल में दूसरे को रखें, तब यह भिन्न अवस्थितियां धारण कर लेता है, और जो सारत: एक समान है, उनके बीच की ये भिन्नताएं त्रिभुज को भिन्न संबंध और सत्य मुहैया कराती हैं।
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दूसरी ओर, विचार के जीवित संसार की ठोस अभिव्यक्ति में जैसे कानून, राज्य, प्रकृति, संपूर्ण दर्शनशास्त्र में वस्तु का अध्ययन उसके विकासशील रूप में होना चाहिए; वहां कोई मनमाना वर्गीकरण नहीं होना चाहिए; वस्तु के रैशनेल का अपने समस्त अंतर्विरोधों में सामने आना और स्वयं अपने में अपने एकत्व को तलाशना आवश्यक है।
किंतु मैं उन चीजों से पन्ने क्यों रंगूं जो मैंने खारिज कर दी हैं? पूरा का पूरा त्रिभागीय वर्गीकरण से भरा है, उबाऊ विस्तार के साथ लिखा गया है, रोमन धारणाओं का उसमें बर्बरता से दुरुपयोग किया गया है ताकि वे मेरे तंत्र में शामिल किये जा सकें। किंतु फिर भी मुझे कुछ हद तक अपने विषय से स्नेह हो गया और मैंने इसकी विषय-वस्तु का एक सामान्य परिचय प्राप्त कर लिया।
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इस बीच मैंने अपनी पढ़ी जाने वाली हर पुस्तक से उद्धरण लिखने की आदत बना ली थी जैसे लेसिंग की लूकून, सोल्जर की अर्विन, विंकलमैन की कन्स्टगेसिकश्टे, लुडेन की डयूटस गेशिख्टे से और उन पर आलोचनात्मक टिप्पणियां लिखने लगा; इसी समय मैंने टैसिटस की जर्मेनिया और ओविड की टि्रसिटयम लिव्री का अनुवाद किया।
मैंने अंग्रेज़ी और इटालियन की पढ़ाई भी शुरू की (उनके व्याकरणों की सहायता से) लेकिन अभी तक इसमें अधिक प्रगति नहीं हुई है। मैंने क्लाइन की क्रिमिनलरेख्ट और उसकी एनाल्स पढ़ी और साथ ही काफ़ी सारा आधुनिक साहित्य भी पढ़ा, लेकिन यह फुर्सत के वक़्त ऐसे ही।
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पहले सत्र में मैं इन तरह-तरह के कामों में लगा रात-दर-रात जगता रहा; कई संघर्षों से गुज़रा और वस्तुगत तथा आत्मगत, दोनों तरह के विक्षोभों का मैंने अनुभव किया; और अंत में मैंने पाया कि मेरा मसितष्क बहुत समृद्ध नहीं हो पाया था जबकि मैंने प्रकृति, कला और संसार की उपेक्षा की थी और अपने दोस्तों को खुद से दूर कर दिया था।
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मेरी सेहत ख़राब हो गयी। एक डाक्टर ने मुझे गांवों की हवा लेने की सलाह दी और इसलिए पहली बार मैं पूरे विस्तृत शहर को पार कर स्ट्रलाउ गया।
एक पर्दा गिर चुका था, मेरी पवित्रतम मूर्तियां टूट गयी थीं और खाली स्थान के लिए नये देवताओं को खोजना ज़रूरी था। आदर्शवाद से शुरू कर (जिसे मैंने कांट और फिख्टे के आदर्शवाद के साथ तौला और उनसे सींचा था) मैं विचार को यथार्थ में ढूंढ़ने निकला। अगर पहले देवता संसार के ऊपर रहते थे, तो अब वे इसका केंद्र बन गये।
मैंने हीगेलियन दर्शन के कुछ टुकड़े पढ़े थे और इसका बेतुका, पथरीला संगीत मुझे अच्छा नहीं लगा था। मैं महासमुद्र में फिर से कूदना चाहता था, लेकिन इस बार यह पता लगाने के निश्चित इरादे के साथ कि हमारी मानसिक प्रकृति उतनी ही नियत, मूर्त और सुस्थापित है जितनी हमारी शारीरिक प्रकृति।
अब मैं तलवारबाज़ी की कला का अभ्यास करना नहीं, बलिक शुद्ध मोतियों को सूर्य के प्रकाश में लाना चाहता था।
बीमारी के दौरान मैं हीगेल और उसके अधिकतर अनुयायियों को शुरू से अंत तक जानने में सफल हुआ। स्ट्रलाउ में बने दोस्तों की सहायता से मैं डाक्टर्स क्लब का सदस्य बन गया, जिसके सदस्य कई शिक्षक और डा. रुडेन्वर्ग (बर्लिन में मेरे सबसे अच्छे मित्र) हैं।
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यहां की चर्चाओं में कई परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किये जाते थे और उनके बीच मैं समकालीन दर्शनशास्त्र के अध्ययन में ज़्यादा से ज़्यादा उलझता चला गया, जिससे मैंने बचना चाहा था; किंतु जैसा कि इतनी काटा-पीटी के बीच स्वाभाविक था, मेरे भीतर जो कुछ भी गुंजायमान था, वह मंद पड़ता गया और व्यंग्योक्तियों का उन्माद मुझ पर हावी हो गया।
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जहां तक कैरियर की बात है। मेरा हाल में सिमडनर नामक एक असिस्टेंट जज से परिचय हुआ है। उन्होंने मुझे कानून की तीसरी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इस कैरियर के लिए कोशिश करने की सलाह दी है। योजना मुझे अच्छी लगी, क्योंकि वास्तव में मुझे न्याय प्रशासनिक विज्ञान से बेहतर लगता है।
उन्होंने मुझे बताया कि मुन्सटर प्रांतीय न्यायालय से उन्होंने और कई दूसरों ने तीन साल में असिस्टेंट जज का पद पाने में सफलता हासिल की है। यह आसान है (अगर आप कड़ा श्रम करें) क्योंकि यहां ये प्रणालियां बर्लिन और दूसरी जगहों की तरह अलग नहीं हैं। अगर असिस्टेंट जज होते हुए आप डाक्टर आफ़ ला बन जायें तो प्रोफ़ेसर एक्स्ट्राआर्डिनरी शीघ्र ही बन जायेंगे।
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यही बान के गार्टनर के साथ हुआ जब उसने प्रांतीय कानून संहिताओं पर एक साधारण ण पुस्तक लिखी। प्रसिद्धि का एक ही और कारण उनके पास है कि उन्होंने अपने आप को हीगेलियन कानूनविद घोषित कर रखा है। लेकिन प्रिय पिताजी, पिताओं में सर्वश्रेष्ठ, क्या मैं यह सब आपके सामने नहीं कह सकता हूं? एडवर्ड की बीमारी, मां की परेशानियां, आपकी अपनी तबीयत (मैं आशा करता हूं कि यह गंभीर नहीं है) सभी मिल कर मुझे बिना देर किये घर आने की प्रेरणा देते हैं।
यह लगभग अत्यावश्यक है कि मैं आऊं। वास्तव में, मैं आ भी गया होता अगर मुझे आपकी स्वीकृति में संदेह नहीं होता। विश्वास करें यह स्वार्थी इच्छा नहीं है (हालांकि मैं जेनी को फिर देख कर बहुत प्रसन्न होऊंगा)
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मैं हमेशा आपको प्यार करने वाला पुत्र रहूंगा,
आपका
कार्ल
Note: महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स से संबंधित यह पोस्ट Letter of Young Marx to His Father आपको कैसा लगा, अपने विचार कमेंट द्वारा दें । हालाँकि यह पोस्ट Letter of Young Marx to His Father बहुत बड़ा पत्र है लेकिन हमने यहाँ उसे संक्षिप्त करके दिया है ।
Steve says
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