Gangaur Festival गनगौर व्रत चैत्र मास के शुक्ला पक्ष तृतीया को रखा जाता है. यह हिन्दू स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है. इसे कुवारी लड़की अच्छे पति की प्राप्ति के लिये और सुहागिन स्त्रियाँ अपने पति के दीर्घ आयु और अच्छे स्वास्थ्य के लिये करती हैं.
अलग- अलग राज्यों की अलग अलग प्रथाओं और कुल परंपराओं के हिसाब से देखा जाय तो पूजन के तौर तरीकों में कुछ अंतर हो सकता है, परन्तु इसकी धाराओं में भेद नहीं है. इतिहास प्रमाण है कि सौभाग्यवती स्त्रियाँ बहुत प्राचीन काल से ही इस व्रत को रखती आयी हैं. यह त्योहार मुख्य रूप से राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में मनाया जाता है. गन का अर्थ शिवजी और गौर यानि गौरी पार्वती हैं.
दिन के मध्यान्ह तक उपवास रखकर पूजन के समय रेणुका का गौर स्थापित करके, उस पर चूड़ी, सिंदूर, महावर, नवीन वस्त्र, धुप, अक्षत, फूल, चन्दन और नैवैद्य आदि अर्पित किया जाता है. उसके बाद कथा सुनकर व्रती स्त्रियाँ गौर पर चढ़ा सिंदूर अपनी मांग में लगाती हैं. गनगौर का प्रसाद पुरुषों को नहीं दिया जाता है.
Gangaur Festival गनगौर व्रत की कथा
इस व्रत से सम्बंधित लोक कथाएं गाँव देहात में सुनने को मिलती हैं. जो इस प्रकार है.
एक बार भगवान शंकर विश्व भ्रमण पर निकले. सती पार्वती और देवर्षि नारद भी उनके साथ थे. तीनों एक गाँव में गए. उस दिन चैत्र शुक्ला तृतीया थी. गाँव की संपन्न स्त्रियाँ शिव-पार्वती के आगमन का समाचार सुनकर बहुत खुश हुए और उनको अर्पण करने के लिये तरह तरह के व्यंजन बनाने लगीं. परन्तु गरीब महिलाओं ने जैसे ही यह समाचार सुना कि उनके गाँव में शिव-पार्वती आये हैं तो अपनी थालियों में हल्दी चावल मात्र लेकर दौडती हुई उनके पास पहुँच गयीं.
भोलेनाथ तो ओघरदानी हैं. इस तरह से गरीब गुरबों की श्रद्धा और भक्ति देख शिव गदगद हो गए और उनके अर्पण को स्वीकार कर आनंदमग्न हो गए. अपने पति को इतना खुश देख सती पार्वती का मन भी आनंद से नाच उठा. उन्होंने आगंतुक महिलओं के ऊपर सुहाग रस (सौभाग्य का टीका लगाने की हल्दी) छिड़क दी. वे महिलाएं इस प्रकार सौभाग्य दान पाकर अपने अपने घर चलीं गयीं.
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उनके जाने के उपरांत संपन्न कुलों की वधूटियां आयीं. वे सब सोलहों श्रृंगार से सज्जित थीं. उन पर चमकते हुए आभूषणों और सुन्दर वस्त्रों की बहार थी. चांदी और सोने के थालों में वे अनेक प्रकार के पकवान बनाकर लाईं. उन्हें देखकर भोलेनाथ ने पार्वती से पूछा – ‘देवि! तुमने सम्पूर्ण सुहाग रस तो अपनी दीन पुजारिनों को दे दिया. अब इन्हें क्या दोगी?’
देवी पार्वती ने कहा – ‘इन्हें मैं अपनी अंगुली चीरकर रक्त का सुहाग रस दूंगी.’
जब सभी सुहागवती स्त्रियाँ वहां आकर पूजन करने लगी तब देवी पार्वती ने अपनी अंगुली से सभी पर अपना रक्त छिड़क दिया और उनसे कहा – ‘अच्छे वस्त्रों और स्वर्ण आभूषणों से अपने अपने पतियों को रिझाने की अपेक्षा अपने प्रत्येक रक्त बिंदु को स्वामी सेवा में अर्पण करके तुम सभी सौभाग्यशाली कहलाओगी.’ सेवा धर्म का यह मर्म जानकार सभी स्त्रियाँ अपने -अपने घर वापस चलीं गयीं और अपने परिवार की सेवा में लग गयीं.
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इसके बाद देवी पार्वती भगवान शिव और ऋषि नारद को वहीँ छोड़ पास की एक नदी में स्नान कर स्वनिर्मित बालू के शिव की पूजा-अर्चना की. उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की कि – ‘हे प्राणनाथ! मैंने जो पूजा कर रही स्त्रियों को वचन दिया है, उसे पूरा करने का सामर्थ्य सिर्फ आप में ही है, इसलिए मुझ पर प्रसन्न होइए और मुझे वरदान दीजिये.’ उस शिवलिंग से शिव साक्षात प्रकट होते हुए बोले – ‘हे देवि! ऐसा ही होगा. जिन स्त्रियों के पति अल्पायु होंगे उन्हें यम के पाश से मुक्त कर दूंगा और आपके वचन पूरे होंगे.’
इसके बाद पार्वती उस स्थान पर पहुंची जहाँ दोनों को छोड़कर गयी थीं. भगवान शिव ने पार्वती से पूछा – देवि! प्रिये! देवर्षि नारद यह जानने को उत्सुक हैं कि तुमने उतना समय कहाँ लगाया?’
पार्वती ने उत्तर दिया – ‘ देव! नदी के तीर पर मेरे भाई और भावज मिल गए थे. उनसे ही बातचीत करने में देर हो गयी.’ उन्होंने बहुत आग्रह किया कि हम अपने साथ दूध भात लाए हैं जिसे बहन को खाना ही पड़ेगा. उनके इस आग्रह के चलते देर हो गयी.’
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अपनी पूजा को गुप्त रखने के लिये उन्होंने यह बात घुमा दिया कि उनके भाई भावज मिल गए थे. यह बात शिव जी को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने पार्वती से कहा – ‘यदि ऐसी बात है तो देवर्षि नारद को भी दूध भात खिलवाने का इंतजाम करो उसके बाद ही वापस कैलाश जायेंगे.’ पार्वती यह सुन परेशान हो गयी. उन्हें यह कतई विश्वास नहीं था कि शंकर जी उनकी परीक्षा लेंगे. फिर उन्होंने उनका ही ध्यान लगाया जो उनकी परीक्षा लेने वाले थे कि हे स्वामी, हमें इस संकट से पार करो. फिर सभी उस नदी की ओर चल दिए.
थोड़ी दूर जाने पर एक सुंदर भवन दिखाई दिया. वे सब उस भवन के अन्दर गए.शंकर भगवान के साले और सलहज ने उनका वहां खूब आदर सत्कार किया और दूध भात खिलाया. दो दिनों तक अच्छी खातिरदारी हुई. तीसरे दिन वे सभी विदा होकर कैलाश की ओर चल दिये.
पार्वती के इस सामर्थ्य और कौशल को देख शिव जी प्रसन्न तो हुए लेकिन धर्म कार्य को असत्य का आवरण देना उन्हें पसंद नहीं आया. रास्ते में चलते चलते उन्होंने देवी पार्वती से कहा – देवि! मैं अपनी माला आपके भाई के घर पर ही भूल आया. पार्वती वहां जाने को तत्पर हो उठीं. लेकिन देवर्षि नारद ने कहा – ‘आप ठहरो देवी पार्वती, माला मै ले आता हूँ.’ नारद जी पार्वती के गुरु भी थे, इसलिए वह चुप हो गयीं.
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जब नारद जी उस स्थान पर गए तो देखा कि न तो यहाँ कोई भवन है न ही कोई मनुष्य. चारों ओर घना जंगल है. जंगली जानवर की आवाजें, सुनसान जगह. लेकिन आसपास का दृश्य वही था केवल वहां से मकान गायब था. वहां पर पार्वती के भैया भाभी कोई भी नहीं था. सहसा बिजली चमकी और नारद जी ने एक पेड की शाखा पर लटकते भगवान शिव की वह माला देखी.
वापस आकर सबकुछ शिवजी को बताया. शिवजी बोले – ‘देवर्षि! आपने वहां जो कुछ भी देखा वह सब आपकी शिष्या पार्वती की माया थी. वह अपने पार्थिव पूजन को गुप्त रखना चाहती थी इसलिए देर से आने का कारण दूसरे ढंग से व्यक्त किया.’
देवर्षि बोले – महामाये! पूजन तो गोपनीय ही होता है परन्तु आपकी भावना और चमत्कारिक शक्ति देख कर मुझे बहुत ख़ुशी है. आप विश्व के समस्त नारियों में पतिव्रत धर्म की प्रतीक हैं. मेरा आशीर्वाद है कि जो देवियाँ गुप्त रूप से पति का पूजन करके उनकी मंगल कामना करेंगी , उन्हें भगवान शंकर के आशीर्वाद से दीर्घायु पति का सुख लाभ होगा. शिव और पार्वती उन्हें प्रणाम करके कैलाश को वापस चले गए. तब से यह गनगौर का सुहागिन स्त्रियाँ अपने अपने पतियों के दीर्घ आयु की मंगल कामना के साथ करती आ रही हैं.
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Amul Sharma says
Very good information about Gangaur Festival…..thanks….
Jone says
so nice sir