डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन (5 सितम्बर 1888 – 17 अप्रैल 1975) का जन्म तमिलनाडु राज्य के मद्रास महानगर से लगभग 50 किलोमीटर दूर तिरुतानी नमक गाँव में 5 सितम्बर सन 1888 को हुआ था. उनके पिता का नाम वीर स्वामी था, जो पंडिताई के साथ- साथ शिक्षक का कार्य भी करते थे.
राधाकृष्णन की प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही संपन्न हुई. उसके बाद वे पढने के लिए वेल्लोर आये. यहाँ से एफ़. ए. की परीक्षा उत्त्तीर्ण करने के बाद मद्रास के क्रिस्चियन कॉलेज से वे एम. ए. की डिग्री ली. पढाई के साथ- साथ वे ट्यूशन भी पढ़ते थे और अपनी पढाई का खर्च उसी से चलाते थे. सन 1908 में राधाकृष्णन मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए. अध्यापन के साथ ही साथ उन्होंने विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में लेख लिखना शुरू कर दिया. इससे उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ गयी. उन दिनों मैसूर रियासत के दीवान डॉक्टर एम विश्वेश्वरैया मैसूर राज्य के सर्वांगीण विकास में लगे हुए थे. राधाकृष्णन की लोकप्रियता से प्रभावित होकर विश्वेश्वेरैया ने उन्हें मैसूर बुला लिया. वे वहां के महाराज कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्त हुए. अध्यांपन कार्य में भी राधाकृष्णन बहुत लोकप्रिय हुए. दर्शन शास्त्र पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी.
यधपि वे स्वयं तो पी. एच. डी. नहीं कर पाए लेकिन देश विदेश के कई यूनिवर्सिटी ने उन्हें डोक्टरेट की मानद उपाधियों से विभूषित किया.
सन 1923 में उन्होंने भारतीय दर्शन का इतिहास नामक ग्रन्थ की रचना की. इसका पहला खंड १९२३ में और दूसरा खंड १९२९ में प्रकाशित हुआ. इसने राधाकृष्णन को एक दार्शनिक के रूप में स्थापित कर दिया. सन १९३१ में वे आंध्र विश्वविद्यालय के उप कुलपति नियुक्त किये गए. यहाँ वे 5 वर्षों तक कार्यरत रहे. उनके भाषणों को सुनकर लगता था मानो विवेकानंद बोल रहे हों. राधाकृष्णन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में उप कुलपति के पद पर अवैतनिक कार्य किया.
शिकागो विश्वविद्यालय में उन्होंने कई बार भाषण दिया. उन्हें दार्शनिक के रूप में कम एक महान शिक्षक के रूप में ज्यादा जाना जाता है.
उनके जन्मदिन 5 सितम्बर को भारत सरकार ने शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया. तब से लेकर प्रतिवर्ष हम 5 सितम्बर शिक्षक दिवस के रूप में मानते हैं.
ब्रिटिश सरकार ने इनको ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया. सन १९४८ में ये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष बनाये गए. ये रूस में भारत के राजदूत भी रहे. सन १९५२ में इन्हें निर्विरोध भारत का उपराष्ट्रपति चुन लिया गया. वे 10 वर्षों तक इस पद पर रहे. फिर १९६२ में भारत के राष्ट्रपति चुने गए. वे 5 वर्षों तक इस पद पर रहे. शिक्षा के क्षेत्र में उनके कार्यों के लिए १९५४ में भारत सरकार द्वारा ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया. 17 अप्रैल १९७५ को ८७ वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हुआ. उनके विचार और कृति आज भी हमें प्रेरणा देते हैं और देते रहेंगे.
महत्वपूर्ण उपलब्धियां:
भारत के राष्ट्रपति (13 मई १९६२ -13 मई १९६७ )
भारत के उपराष्ट्रपति
आंध्र विश्वविद्यालय के उप कुलपति
बनारस विश्वविद्यालय के उपकुलपति
यु. जी. सी. के अध्यक्ष
भारत रत्न १९५४ में
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