The Maestro of Shehnai Ustad Bismillah Khan / उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब
The Maestro of Shehnai Ustad Bismillah Khan उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब आज हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी शहनाई की गूंज आज भी मन आनंद से भर उठता है। उन्होंने अपने जीवन में बहुत मान और सम्मान और सम्मान हासिल किया। उनको भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। दोस्तो, आइये, जानते हैं उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब के बारे में :
आरंभिक जीवन
डुमराँव (बिहार ) से लगभग छह साल का बच्चा अपनी माँ क साथ काशी (वाराणसी) जा रहा था।रास्ते में उसने माँ से पूछा – “अम्मी हम मामू के यहाँ कितने दिन रहेंगे अब तुम्हें वहीं रहना है। पढाई करनी है। जब मदरसे की छुट्टी होगी, तब तुम आओगे” – माँ ने कहा।
“अम्मी मामू भी तो शहनाई बजाते हैं न” – बच्चा बोला।
“देखो कमरूद्दीन तुम वहाँ पढने जा रहे हो। शहनाई बजाने नहीं। हम अंग्रेजों के गुलाम हैं। गुलाम देश में बजा बजाने वाले को कोई सम्मान नहीं मिलता। देखते नहीं कि शहनाई बजाने वाले पर्दे के पीछे बैठकर बजाते हैं। पढोगे तो कोई छोटा-मोटा काम मिल जाएगा। नहीं तो”– माँ ने बात बीच में ही छोड़ दी।
“पर अम्मी बाबा और अब्बा सभी तो शहनाई बजाते हैं। मुझे शहनाई बहुत अच्छी लगती है। मुझे और कुछ करना अच्छा नहीं लगता”– बच्चे ने कहा।
“बस अब चुप रहो। इस पर कोई बहस नहीं” – माँ ने कड़ाई से कहा।
काशी में बेटे का दाखिला मदरसे में कराकर उनकी माँ डुमराँव लौट गई। मदरसे में कमरूद्दीन का मन न लगता। वह घंटो अपने मामा अली बख्श खां को गंगा के किनारे शहनाई का रियाज करते सुनते रहते। उस्ताद अली बख्श खां बहुत जाने माने शहनाई वादक थे। वह काशी के मंदिर, विवाह के उत्सव और मुहर्रम के अवसरों पर शहनाई बजाने के लिए बुलाते जाते।
कई दिनों तक मामा ने देखा। वह चहेता – सा – बच्चा भूखा – प्यासा रहकर घंटों उनका रियाज सुनता रहता है। एक दिन जब बच्चे ने मामा से पूछा – “मामू ! क्या मैं एक बार आपकी शहनाई बजा सकता हूँ।”
लगन और मेहनत का फल
मामा ने उसकी लगन और चाहत देखकर उसके हाथ में शहनाई पकड़ाई और बोले – “यह लो और बिस्मिल्लाह करो।” बस उसी उसी दिन से बालक कमरूद्दीन का नाम बदलकर बिस्मिल्लाह खां पड़ गया। मामा अली बख्श खां ही उनके गुरू थे।
बिस्मिल्लाह खां शहनाई का निरंतर अभ्यास करने लगे। यह बात डुमराँव में उनके परिवार वालों को पता चली। वे सब काशी आए। बिस्मिल्लाह खां ने उनके सामने शहनाई बजाई।
शहनाई सुनकर उनके बाबा बोले – “यह क्या बिल्ली की तरह म्याऊँ – म्याऊँ कर रहे हो। अरे बजाना है तो शेर की तरह दहाडो। खुलकर बजाओ। अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा करो। शहनाई बजाने के लिए ताकत की जरूरत होती है। फेफड़ों में लंबी साँस भरनी होती है। वह ताकत तब आएगी जब तुम अच्छा भोजन करोगे। व्यायाम करोगे।”
यह बात बिस्मिल्लाह खां को समझ में आ गई। वे अपनी सेहत और व्यायाम के प्रति सजग रहने लगे। वे कहते थे कि मैं चाहता हूँ कि मेरी शहनाई में बाबा की ताकत और मामू की मधुरता का मेल हो।
सन 1935 में लखनऊ में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन हुआ। कठिन रियाज के बाद बिस्मिल्लाह खां ने अपने मामू गुरू अली बख्श खां के साथ इसमें भाग लिया। वहाँ उन्होंने स्वर्ण पदक जीता। उसके बाद सफलता उनके कदम चूमती रही। दुनिया के लगभग हर देश में उन्होंने शहनाई वादन प्रस्तुत किया। उनका हर कार्यक्रम सराहा गया। उन्होंने भारत का नाम पूरे संसार में रोशन किया।
सम्मान
उन्हें अनेक सम्मान मिले। भारत के संगीत वादकों में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ही ऐसे कलाकार हैं जिन्हें भारत के चारों नागरिक सम्मान मिले। उन्हें पद्मश्री,पदमभूषण, पद्म विभूषण और भारतरत्न सम्मानों से विभूषित किया गया।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने अंग्रेजों का अत्याचार भारतीयों के ऊपर देखा था। जब भारत आजाद हुआ तो प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आग्रह पर सबसे पहले उन्होंने देशवाशियों को संबोधित किया। एक अनोखे अंदाज में उन्होंने शहनाई पर ‘राग काफी’ बजाई।. लोग उसे सुनकर आनंद से झूम उठे।
यही नहीं, भारत की आजादी की पचासवीं वर्षगाँठ अगस्त 15 सन 1997 के दिन भी उनका प्रथम उद्बोधन था। सबसे पहले लाल किले के दीवान – ए – आम में पहली आवाज उनकी शहनाई के सुरों की गूँजी। यह प्रत्येक श्रोता के लिए रोमांचक क्षण था। सरल व्यक्तित्व वाले उस्ताद का मानना था कि कठिन अभ्यास और पक्के इरादे से सब कुछ पाया जा सकता है।
एक रेडियो संवाददाता ने उनका इंटरव्यू लेना चाहा तो वे बोले – मैं अपने बारे में क्या बोलूँ। जो कुछ शहनाई बोलती है।
उनका देहावसान 21 अगस्त 2006 को हुआ। उनके जीवन यात्रा से हमें यही सीख मिलती है कि कोई भी कार्य में सफलता पाने के लिये आपके पास अच्छा स्वास्थ्य, आत्मविश्वास और कठिन मेहनत करने की क्षमता होनी चाहिए। आप आजमाकर देखें, आप जरुर सफल होंगे।
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पहले समय के जो सेलेब्रिटी हुआ करते थे उनकी शोहरत और नाम सालों तक बरकरार रहता था ,जिसका सबसे बड़ा कारण मैं मानता हूँ उनकी सादगीपन और घमंड का न होना. यह बातें सामान्य लग सकती हैं पर लम्बे समय में यही कारगर सिद्ध होती हैं
हमारे ब्लॉग पर पधारने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद! मैं आपके विचारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ.
As a adsence publisher i was thinking like this and after reading your article now i am confident to change .
अच्छा ब्लॉग