
एकात्म मानवतावाद के प्रवर्तक: पंडित दीनदयाल उपाध्याय
पंडित दीनदयाल उपाध्याय आजादी के उपरांत एक राजनीतिक दल के प्रमुख नेता होने के साथ ही उस राजनीतिक संगठन के प्रेरणास्रोत भी थे। एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता को इन बातों से छुटकारा नहीं मिल सकता कि देश, समाज, संस्कृति और सभ्यता जैसे विन्दुओं पर अपने विचार न रखे। किन्तु दीनदयाल जी ने जिन संस्कारों और जीवन-दृष्टि को आत्मसात करने के बाद ही राजनीतिक क्षेत्र में कदम रखा उसमें राष्ट्रीयता और देश प्रेम का विशुद्ध विचार सम्मिलित था। राजनीतिक नेता होते हुए भी उन्होंने सदैव राष्ट्र-निर्माण के कार्य को ही अंग मानने के साथ उसे साधना भी माना। अनेक प्रचलित मान्यताओं एवं धारणाओं को झकझोरते हुए उन्होंने राष्ट्रीय जीवन की स्वाभाविक धारा का दर्शन कराया. प्रस्तुत पोस्ट Pandit Deendayal Upadhyaya Biography in Hindi में जीवन और कृतित्व को संक्षेप में जानने का प्रयत्न किया गया है.
Pandit Deendayal Upadhyaya Biography in Hindi पंडित दीनदयाल उपाध्याय जीवनी
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 रोज सोमवार (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, संवत 1973) को मथुरा जिले में ब्रज की पावन धरती नगला चंद्रभान नामक गांव में हुआ था। उनका पूरा नाम दीनदयाल उपाध्याय था, लेकिन घर के लोग दीना कहकर बुलाते थे। उनकी मां श्रीमती रामप्यारी एक धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। उनके पिता श्री भगवती प्रसाद, जेलसर में सहायक स्टेशन मास्टर थे। उनके परदादा, पंडित हरिराम उपाध्याय एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे।
बाल्यकाल
उनका जन्म अपने नाना पंडित चुन्नीलाल के यहाँ हुआ था। जब उन्होंने एक ज्योतिषी को अपने नाती का कुंडली दिखाया तो उस ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि “वह लड़का एक महान विद्वान और विचारक, निस्वार्थ कार्यकर्ता और एक अग्रणी राजनीतिज्ञ बनेगा – किन्तु वह शादी नहीं करेगा।“ उनके जन्म के दो साल बाद उनकी मां श्रीमती रामप्यारी ने अपने दूसरे पुत्र शिवदयाल को जन्म दिया। तीन साल से कम उम्र में उन्होंने अपने पिता श्री भगवती प्रसाद को खो दिया और जब वे आठ साल के थे और उनकी मां भी चल बसीं।
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उनकी माताजी श्रीमती रामप्यारी की मृत्यु के दो साल बाद उनके नाना पंडित चुन्नीलाल, अपने दोनों नातियों को आगरा जिले के फतेहपुर सीकरी के पास अपने गांव गुड की मंडी में अपनी मृत बेटी की विरासत के रूप में लेकर आये। लेकिन उनका निधन भी सितंबर 1926 में हो गया। दीनदयाल जी उस समय मात्र दस वर्ष के थे। इस प्रकार वह अपने माता-पिता और अपने नाना तीनों के प्रेम और स्नेह से वंचित रह गए।
कष्टपूर्ण जीवन और मृत्यु दर्शन
वह अपने मामा के साथ रहने लगे। दीनदयाल की मासी दोनों भाइयों की भावनाओं के प्रति संवेदनशील थीं; उसने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला। उन अनाथों के लिए मासी के रूप में मां दुबारा मिल गई। दस वर्षीय दीनदयाल जी उस छोटी उम्र में अपने छोटे भाई के संरक्षक बने; वह उसकी देखभाल करते थे और उसकी सभी जरूरतों का ख्याल रखते थे। जब वह नौवीं कक्षा में और अपने अठारहवें वर्ष में थे, उनके छोटे भाई शिवदयाल को चेचक हो गया। दीनदयाल जी ने शिवदयाल के जीवन को बचाने के लिए उस समय उपलब्ध सभी उपचार उपलब्ध कराकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया, लेकिन शिवदयाल का भी निधन 18 नवंबर 1934 को हो गया। इस तरह दीनदयाल जी अब दुनिया में अकेले रह गए।
बाद में वे सीकर में हाई स्कूल में पढ़ने लगे। सीकर के महाराजा ने पंडित जी को स्वर्ण पदक दिया, 250 रूपये पुस्तकों के लिए और 10 रुपये की मासिक छात्रवृत्ति प्रदान दी। पंडित जी ने पिलानी में अंतरस्नातक यानी इंटरमीडिएट परीक्षा विशेष प्रतिभा के साथ उत्तीर्ण की और अपनी बी.ए. की पढ़ाई के लिए कानपुर चले गए और सनातन धर्म कॉलेज में दाखिला लिया। अपने दोस्त श्री बलवंत महाशब्दे के साथ वे 1937 में आरएसएस की मीटिंग में गए और इसमें शामिल हो गए।
कॉलेज जीवन
सन 1939 में सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण की। एम.ए. अंग्रेजी साहित्य में करने के लिए सेंट जोन्स कॉलेज आगरा में प्रवेश लिया। एम.ए. प्रथम वर्ष में उन्हें प्रथम श्रेणी के अंक मिले। बहन की बीमारी के कारण वे एम.ए. उत्तरार्द्ध की परीक्षा नहीं दे सके। मामा जी के बहुत आग्रह पर वे प्रशासनिक परीक्षा में बैठे। उत्तीर्ण भी हुए। साक्षात्कार में भी चुन लिए गए, पर उन्हें प्रशासनिक नौकरी में कोई रुचि नहीं थी।
दीनदयाल युवक हो गए थे। वे आगरा में एम.ए. अंग्रेजी की पढ़ाई कर रहे थे। यहां वे श्री नानाजी देशमुख और श्रीभाउ जुगाडे के साथ आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने लगे। इसी बीच बहन रामा देवी बहुत बीमार हो गई थी। दीनदयाल ने अपनी पढ़ाई छोड़ कर रामा देवी की सेवा तथा उपचार के सब साधन जुटाए। पर नियति को यही मंजूर था कि उन्हें अपनी बहन की मौत भी देखना पड़ा। बचाने की लाख कोशिशों के बावजूद रामा देवी (सन 1940) के प्राण-पखेरू उड़ गए। दीनदयाल चौबीस वर्ष के हो गए थे। मृत्यु ने उनके शिशु, किशोर, बाल व युवा मन पर निरंतर आघात किए। न मालूम उनके चिर प्रशंसित वैरागी जीवन में नियति के इस तथाकथित क्रूर निदर्शन का कितना हाथ था? इसी बीच सीकर के महाराजा और श्री मान बिड़ला से मिल रही छात्रवृत्ति भी बंद हो गयी।
कुशाग्र बुद्धि के स्वामी
अपनी चाची के कहने पर सरकार द्वारा आयोजित एक प्रतियोगी परीक्षा में वे धोती और कुर्ता, सिर पर एक टोपी पहन परीक्षा केंद्र पर पहुंचे, जबकि अन्य उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहनकर गए थे। मजाक में अन्य उम्मीदवारों ने उन्हें “पंडितजी” कहकर पुकारा – एक पदवी जिससे बाद के वर्षों में उन्हें लाखों लोग आदर और सम्मान के साथ बुलाते थे। इस परीक्षा में उन्होंने टॉप किया। अपने चाचा की अनुमति के साथ, वे बी.टी. करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने आरएसएस कार्यकर्ता वाली गतिविधि जारी रखी । बी.टी. पूरा होने के बाद, उन्होंने आरएसएस के लिए पूर्णकालिक कार्य किया और यूपी के लखीमपुर जिले में एक ऑर्गेनाइजर के रूप में काम करने लगे और 1955 में यूपी में आरएसएस के प्रांतीय ऑर्गेनाइजर बने।
बेजोड़ लेखक और संपादक
उन्होंने लखनऊ में पब्लिशिंग हाउस ‘राष्ट्र धर्म प्रकाशन’ की स्थापना की और मासिक पत्रिका ‘राष्ट्र धर्म’ का शुभारंभ किया ताकि वे अपने सिद्धांतों का प्रचार कर सकें। बाद में उन्होंने एक साप्ताहिक ‘पाञ्चजन्य’ की शुरुआत की और फिर भी बाद में दैनिक ‘स्वदेश’ भी शुरू किया। सन 1950 में केंद्र में तत्कालीन मंत्री डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू-लियाकत पैक्ट का विरोध किया और अपने कैबिनेट पद से इस्तीफा दे दिया और लोकतांत्रिक ताकतों का एक आम मोर्चा बनाने के लिए विपक्ष में शामिल हो गए। डॉ मुखर्जी ने राजनीतिक स्तर पर काम करने के लिए समर्पित युवा पुरुषों को संगठित करने के लिए दीनदयाल जी की मदद ली।
पंडित दीनदयालजी ने 21 सितंबर 1951 को यूपी में एक राजनीतिक सम्मेलन का आयोजन किया और नई पार्टी भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की स्थापना की। पंडित दीनदयाल जी चलते-फिरते यानी गतिशील विचार पुंज थे। डॉ मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को आयोजित जनसंघ के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की।
सच्चे राष्ट्रभक्त
पंडित दीनदयाल जी का आयोजन कौशल बेजोड़ था। अंत में जनसंघ के इतिहास में वह स्वर्णिम दिन आया जब 1968 में इस पूर्ण निष्ठावान नेता को पार्टी के सर्वोच्च पद यानी पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। इस जबरदस्त जिम्मेदारी को संभालने के बाद दीनदयाल जी जनसंघ के प्रचार- प्रसार के लिए दक्षिण भारत चले गए। उन्होंने कलकत्ता के सत्र में हजारों प्रतिनिधियों को निम्नलिखित भाषण से अभिभूत कर दिया, उनके शब्द आज भी प्रासंगिक और अनुपम हैं। प्रस्तुत है उसका एक अंश:
“हम किसी भी खास समुदाय या वर्ग की नहीं बल्कि संपूर्ण देश की सेवा के प्रति वचनबद्ध हैं। हर देशवासी का खून हमारा है और हमारे शरीर का मांस है। हम तब तक आराम नहीं करेंगे जब तक हम हर एक भारतवासी में इस गर्व की भावना को जगा नहीं देते कि वे भारतमाता की संतान हैं। हम यदि चाहे तो अपने वास्तविक अर्थों में माँ भारती को सुजलां और सुफलां बना सकते हैं। दशप्रहाराना धारिणी दुर्गा यानी देवी दुर्गा अपने 10 अस्त्रों सहित बुराई को जीतने में सक्षम होगी; लक्ष्मी के रूप में वह समृद्धि लाने में सक्षम होंगी और सरस्वती के रूप में वह अज्ञानता की उदासी को दूर करेंगे और ज्ञान की ज्योति चारो तरफ फैल रही होगी। चिर विजय पर विश्वास के साथ, आइए हम अपने आप को इस कार्य के लिए समर्पित करें।“
राजनैतिक जीवन
पंडित जी 1937 से 1968 तक भारत के राष्ट्र जीवन में क्रियाशील रहे. वे 1937 में आरएसएस के संपर्क में आये. 1942 में आरएसएस के जीवनव्रती प्रचारक बने. सन 1951 से 1967 तक भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे. वे सिर्फ 44 दिनों तक भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने. यही जनसंघ बाद में चलकर भारतीय जनता पार्टी बनी.
महाप्रयाण
वे बिहार प्रदेश भारतीय जनसंघ की कार्यकारिणी बैठक में शामिल होने के लिए पटना जाने को तैयार हुए. 11 फरवरी 1968 की काली रात, दीनदयालजी को अचानक मौत के आगोश में धकेल दिया और उन्हें संदेहास्पद परिस्थितियों में मुगल सराय रेलवे यार्ड में मृत पाया गया। इस कुशल संगठनकर्ता, मौलिक विचारक, दूरदर्शी नेता, सबको साथ लेकर चलने वाले व्यक्तित्व को विनम्र श्रद्धांजलि!
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