Moulvi Ahmadullah Biography in Hindi मौलवी अहमदुल्ला की जीवनी
सादिकपुर के मौलवी परिवार को अंग्रेज अपना शत्रु समझते थे. वह सदैव उसे नीचा दिखने का प्रयत्न करते रहते थे. पर यह परिवार अपनी सम्पन्नता ही नहीं वरन विद्वता के कारण सम्पूर्ण भारत के मुसलमानों की दृष्टि में सम्मान का स्थान प्राप्त किये हुए था. हजारों मुसलमान इस परिवार के शिष्य थे. इस परिवार के प्रमुख थे – मौलवी अहमदुल्ला.
सीमा प्रांत की पहाड़ियों में हिन्दुस्तानी मुसलमानों की छावनी कार्यरत थी, जो अंग्रेजों को सदैव नाकों चने चबवाती रहती थे और इस छावनी का संचालन करते थे मौलवी अहमदुल्ला. यह मौलवी अहमदुल्ला 1845 से 1872 तक निरंतर ब्रिटिश सरकार से लोहा लेने वाले आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे. इस आन्दोलन को अंग्रेज इतिहासकारों ने ‘बहावी आन्दोलन’ का नाम दिया है. बाद में इसका रूप जमायत-उल-उलेमा तथा सीमा प्रान्त के खुदाई खिदमतगार आन्दोलन के नाम से लोकप्रिय हो गया.
19 जून 1847 को कमिशनर ने मौलवी साहव तथा उनके साथियों को अपने घर बुलाने का निमन्त्रण भेजा. संदेश वाहक ने सूचना दी कि कमिशनर साहब नगर में शांति रखने के उपायों पर चर्चा करना चाहते हैं. योजना पूर्व आयोजित थी, अत: उन्हें कमिशनर साहब के घर पर ही गिरफ्तार कर लिया गया.
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अपने प्रिय देशभक्त नेता की गिरफ्तारी को जनता सहन न कर सकी. जुलाई 1847 को वह क्रांतिकारी दिवस जब मुगल सम्राट का हरा झंडा लेकर वहाँ के जन समूह ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया. एक सिंख रेजीमंट भेजकर भीड़ को तितर बितर करने के आदेश दिये. जनसमूह ने डटकर मुकाबला किया.
मौलवीअहमदुल्ला बहुत समय तक नजर बंद रहे. उनसे किसी को मिलने नहीं दिया जाता था. वह तभी जेल से मुक्त हो पाये, जब कमिशनर टेलर की सेवाएं समाप्त हो गई. सन 1847 की ज्वाला बुझाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने लाखों भारतीयों का खून भय. सीमाप्रान्त विद्रोही छावनी की गतिविधियों में कोई अंतर नहीं आया. बल्कि उस समय क्रांति म भाग लेने वाले अनेक विद्रोही देशभक्तों के लिए वह छावनी आश्रय स्थल बन गई थी. अनेक विद्रोहियों ने अंग्रेजों की चौकियां तथा छावनियों को साफ करने में सफलता प्राप्त की .
सम्पूर्ण भारत में तलाशियाँ तथा गिरफ्तारियाँ की गई. मौलवी साहब के छोटे भाई याहिया अली को केस का मुख्य अभियुक्त माना गया. उन्हें फाँसी की सजा दी गई. हाईकोर्ट में अपील करने पर फाँसी का दण्ड आजीवन कारावास में बदल दिया गया. सरकार तो पूरे परिवार को तबाह करना चाहती थी,.
याहिया अली के साथ उनके ही परिवार के अब्दुर्रहीम तथा इलाही बख्स को भी लम्बी सजायें दी गई और उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी.
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मौलवी अहमदुल्ला भी मौका देख रहे थे. पटना में दमन नीति का उन्होंने कोई उत्तर न दिया. पर 3 सितम्बर 1863 को मौलवी साहब के नेतृत्व में छावनी के विद्रोहियों ने टोपी स्थित ब्रिटिश चौकी पर हमला कर दिया. सीमाप्रान्त के सभी पहाडी क्षेत्रों द्वारा मौलवी साहब को सहायता मिल गई, सरकारी खजाने से करोड़ों रू0 खर्च हो गये, पर शांति की स्थापना फिर भी न हो सकी.
उस समय भारत के वाइसराय ने एक और चाल चली. देश के प्रमुख मुसलमान नेताओं को अपनी ओर मिलाकर ऐसे भाषण दिलवाये, जो ब्रिटिश शासन की वफादारी प्रकट करते थे. मौलवी साहब भला यह क्यों सहन करते उन्होंने शेरअली नामक एक पठान से 8 फरवरी 1872 को लार्ड मेयो के अंडमान आने पर उनकी हत्या करा दी . लार्ड मेयो जब मोटर बोट में चढ़ रहे थे , मार डाले गए .
‘जन्म जहाँ पर हमने पाया, अन्न जहाँ का हमने खाया, वह है प्यारा देश हमारा, देश की रक्षा कौन करेगा, हम सब करेंगे’. हिन्दू – मुस्लिम करेंगे के उद्घोष को सार्थक करने वाले शहीदों में मौलवी साहब हमेशा अमर रहेंगे .
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