The Life of Swami Vivekananda in Hindi
स्वामी विवेकानन्द का जीवनचरित एक ऐसे चिर युवा का चरित है, जिसे लोग आज भी नवजागरण के पुरोधा और योद्धा संन्यासी के रूप में ही याद करते हैं। उनके विस्तृत लेखन में गंभीर दार्शनिकता और धार्मिकता तो है ही, सामाजिक और व्यावहारिक धरातल पर भारतीय समाज की जड़ता, दीनता और पतनशीलता को दूर करने की उनकी व्यक्तिगत छटपटाहट भी वहां स्पष्ट देखी जा सकती है। विवेकानन्द का कुल जीवन सन् 1863 से लेकर 1902 तक साढ़े उनतालीस वर्षों का रहा। इसी संक्षिप्त अवधि के भारतीय नवजागरण की संघटित ऊर्जा उनके मन-मस्तिष्क में उद्वेलित हुई। आर्य समाज, ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज जैसे सांस्कृतिक आंदोलन जब पूरे भारतवर्ष में सनातनी सांस्कृतिक सड़ांध को साफ़ करने में लगे थे, तब युवा नरेन्द्रनाथ दत्त एक सहज सरल इन्सान की प्रतिमूर्ति श्री रामकृष्ण परमहंस के सान्निध्य में आये। रामकृष्ण दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के अद्भुत पुजारी के रूप में कलकत्ता के जन-जीवन में पहले से ही विख्यात थे।
पाश्चात्य अज्ञेयवादी दर्शन का अध्ययन किये नास्तिक युवा नरेन्द्र उस समय ब्रह्मसमाजी विद्वानों में देवेन्द्र नाथ टेगौर, केशवचन्द्र सेन आदि से बहस करता है ईश्वर के अस्तित्व की निरर्थकता पर।
रामकृष्ण इस युवक की बौद्धिक बेचैनी को देखते हुए उस पर मोहित हैं। वह उनसे भी वही प्रश्न करता है-क्या आपने कभी स्वयं भावावेशपूर्ण ईश्वर को देखा है? रामकृष्ण स्वयं शक्ति, तांत्रिक, ईसाइयत, इस्लामी और विशेषकर वेदांती मूल्य चेतनाओं के प्रभाव में हैं। उनसे मिलने आने वाले जिज्ञासु समूह के भीतर विविध धार्मिक मूल्यों और रहस्यवादी अनुभवों का खंडन विखंडन पूरी तरह हावी है।
नरेन्द्रनाथ और उसके जैसे कुछ युवजन रामकृष्ण के सान्निध्य में मानव सेवा और अध्यात्म की साधना के लिए एकत्र होते हैं, उन सब की सामाजिक सक्रियता जारी है। तभी नरेन्द्रनाथ के वकील पिता का देहांत हो जाता है। परिवार में मां, बहन, भाई हैं। उनके भरण पोषण की जवाबदेही उन पर आ जाती है।
आध्यात्मिक अधीरता और आर्थिक परेशानियों के बीच झूलते हुए नरेन्द्रनाथ रामकृष्ण से विश्व के दुःख को अपनी नियति समझने का पाठ पढ़ते हैं। रामकृष्ण के देहत्याग के पश्चात नरेन्द्रनाथ अपने गुरु भाइयों सहित मानव सेवा व्रत के साथ विस्तृत मानव समाज में अपने को विलीन कर लेना चाहते हैं। परिव्राजक के रूप में सारे भारतवर्ष की दरिद्रता, अज्ञानता, शोषण और अन्याय का प्रत्यक्ष अनुभव उन्हें होता है।
स्त्री के दुःख और दारिद्र्य की वेदना तो उन्होंने स्वयं अपनी ही बहन की आत्महत्या के बाद महसूस की। यही वेदना करुणा के रूप में उन्हें जीवन भर स्त्री जागरण के लिए प्रेरित करती रही। भारतीय समाज के मनुष्यों के दुःख और यातना को लगभग सात वर्षों तक जगह-जगह घूमकर उन्होंने आत्मसात किया।
उस परिव्राजक की यह संगुफित करुणा ही बाद में आध्यात्मिक अंतश्चेतना बनी, जिसके कारण एक दिन अपनी नरेन्द्रनाथ की पहचान को तिलांजलि देकर वे स्वयंघोषित स्वामी विवेकानन्द बन गये।
विवेकानन्द को निर्विकल्प समाधि में जाने की बनिस्बत सामाजिक संत्रास से मनुष्य को मुक्ति दिलाने, दरिद्रनारायण की सेवा करने के लिए उनके गुरु रामकृष्ण का आदेश मिला था। अमेरिका के शिकागो शहर के विश्व धर्म महासम्मेलन में उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति का पक्ष विश्व के सभी धर्मों और समाजों के साथ समन्वयात्मक ढंग के विश्लेषण के द्वारा प्रस्तुत किया था, जिसके कारण उन्हें विश्व भर में ख्याति प्राप्त हुई। तीन वर्षों के बाद जब वे भारत आये, तब रामकृष्ण मिशन के माध्यम से उन्होंने समाज सेवा और सामाजिक जागृति का काम किया। इसलिए जब वे दुबारा अमेरिका-यूरोप प्रवास पर गये, तब तक एक हिंदू धार्मिक नेता के रूप में उनकी प्रसिद्धि हो चुकी थी। धार्मिक कट्टरता की जगह वे आधुनिक जगत में विज्ञान और धर्म का समन्वय करना चाहते थे। इसी दृष्टि से भारतीय समाज की ग़रीबी, धार्मिक अंधविश्वास, जात-पांत, अशिक्षा, नारी शोषण जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के लिए उन्होंने युवकों का आह्नान किया।
विवेकानन्द की मृत्यु के सौ वर्ष से भी ज़्यादा समय गुज़र जाने के बाद क्या आज भी भारतीय युवाओं के लिए उन्हें प्रगति का प्रतीक माना जा सकता है? सामाजिक क्रांति की मुख्य भूमिका यथास्थितिवाद और प्रतिक्रियावाद के विरोध की होती है। भारतीय नवजागरण का आंदोलन सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए उभरा था किंतु भारतीय समाज की धार्मिक व्यवस्था की जड़ता बदलाव के बार-बार हुए प्रयत्नों को निष्फल करती रही है। आज़ादी के 70 साल बाद भी संवैधानिक संरक्षण के बावजूद सामाजिक-आर्थिक शोषण और अन्याय के परम्परागत ढांचे को पूरी तरह निर्मूल नहीं किया जा सका है। विवेकानन्द लगभग सवा सौ साल पहले बोल रहे थे: ‘हम भारत में ग़रीबों और गिरे हुए लोगों के बारे में कितना जानते हैं, उनका कितना ख़याल करते हैं यह सोच कर मेरा हृदय ऐंठने लगता है। याद रखो, हमारा राष्ट्र झोंपडि़यों में बसता है। शूद्र ही धन के सच्चे उत्पादक हैं फिर भी उनकी सदैव उपेक्षा की जाती रही है और न जाने कितने समय से वे अत्याचार और शोषण के कारण पशुवत् हो गये हैं…यंत्रवत् वे काम करते रहते हैं और चतुर व्यक्ति उनके श्रम का शोषण करते हैं। निर्दय समाज द्वारा अपने ऊपर होने वाले आघातों का अनुभव तो वे करते हैं पर वे नहीं जानते कि उन्हीं के साथ ऐसा क्योंहोता है।’ भारतीय नवजागरण का मूल स्वर सामाजिक-सांस्कृतिक पुनःसृजन का था, जिसके पूर्ण होने के बाद ही राजनैतिक चेतना के विकसित होने की उम्मीद राजा राममोहन राय, ज्योतिबाफुले, जस्टिस रानाडे आदि के तत्कालीन लेखन में देखी जा सकती है। स्वाभाविक तौर पर उस मुख्य प्रवाह की अगली कड़ी के रूप में तिलक, गोखले, महात्मा गांधी, बाबा साहब अम्बेडकर, रामास्वामी नायकर आदि रहे।
विवेकानन्द ने अपने अमेरिका-यूरोप प्रवास में तत्कालीन समाज में वैश्विक मानव समाज के विकास की प्रगतिशील धारा यानी समाजवादी समाज रचना की तार्किकता को अच्छी तरह समझ लिया था। इसीलिए भारतीय समाज की ग़रीबी, अज्ञान, जात-पांत, छूआछूत जैसी असमानता की स्थितियों पर उनके चिंतन में बार-बार विक्षोभ और क्रोध प्रकट होता है।
वे देश की भुखमरी और ग़रीबी पर अपना दुःख एवं क्रोध इन शब्दों में प्रकट करते हैं: ‘हा शोक! देश के ग़रीबों का कोई विचार नहीं करता। वे ही तो देश के मेरुदंड हैं जो अपने परिश्रम से अन्न उत्पन्न करते हैं, कृषक, मज़दूर और मेहतर, यदि ये लोग एक दिन काम बंद कर दें तो शहर भर में घबराहट फैल जायेगी। परंतु उनके साथ सहानुभूति बताने वाला कौन है? उनको विपत्ति में उनकी सांत्वना देने वाला कौन हैं?…. हम दिन-रात चिल्ला-चिल्ला कहते रहते हैं–हमें मत छुओ, हमें मत छुओ। देश में दयालुता या आर्द्रभाव कहीं है क्या? केवल ‘मतछुओवाद’ वाले ही हैं। इन सब रूढि़यों को ठोकर मारकर निकाल दो। मेरी तो कभी-कभी ऐसी तीव्र इच्छा होती है कि ‘मतछुओवाद’ के बंधनों को तोड़ फेंकूं। तुरंत जाऊं और पुकारूं, चले आओ सब कोई, जो ग़रीब, दुःखी, दीन-हीन और दलित हैं। और उन सबको श्री रामकृष्ण के नाम पर एकत्रित कर संगठित कर लूं। जब तक वे नहीं उठेंगे, भारत माता नहीं जागेगी।’
अन्य स्थान पर वे अपने सहधर्मियों को ललकारते हैं: ‘क्या तुम समझते हो हमारा धर्म ‘धर्म’ कहलाने लायक है! जिस देश में बड़े-बड़े कर्णधार दो हज़ार वर्षों से केवल यही विवाद करते आये हों कि भोजन दाहिने हाथ से किया जाय या बायें हाथ सेμपानी दाहिनी ओर से उठाकर पियें या बायीं ओर से; यदि ऐसे देश का विनाश न हो तो फिर किसका हो! जिस देश में लाखों लोग महुए के फूल से पेट भरते हों, वहां दस बीस लाख साधु और दस एक करोड़ ब्राह्मण इन ग़रीबों का रक्त चूसते हैं। परंतु
उनके सुधार का रत्ती भर प्रयास नहीं करते। वह कोई देश है या नरक? वह धर्म है या शैतान का नग्ननृत्य? मैं सारा भारतवर्ष घूम चुका हूं और अमेरिका को भी मैंने देखा है। तुम्हारे लिए अच्छी तरह से समझने की बात यह है कि कारण के बिना क्या कोई कार्य हो सकता है? पाप किये बिना क्या दंड मिल सकता है?’
विवेकानन्द की एक सौ दस वर्ष पूर्व की फटकार सुनिए: ‘तुम ऊंची ज़ात वाले! क्या तुम जीवित हो! जिन्हें सचल श्मशान (शूद्र) कह कर तुम्हारे पूर्वजों ने घृणा की है, भारत में जो कुछ भी वर्तमान जीवन है वह सब उन्हीं के कारण है। और सचल श्मशान तो हो तुम लोग! तुम लोग शून्य में विलीन हो जाओ तो फिर एक नवीन भारत निकले; हल पकड़ कर किसानों की झोंपडि़यों से विविध साधनों के युक्त माली, मोची, मेहतर की टूटी-फूटी कोठरियों से।’
भारतवर्ष में जब यहां के लोग समाजवाद शब्द को जानते तक नहीं थे, तब आज से एक सौ पंद्रह साल पहले विवेकानन्द स्वयं को एक समाजवादी होने की घोषणा कर रहे थेः ‘वे लोग कहते हैं जिनके शारीरिक श्रम के कारण ही ब्राह्मण को प्रभाव, क्षत्रिय को वीरता और वैश्य को धन प्राप्त होता है? उनका इतिहास क्या है, जो समाज का प्रधान अंग होते हुए भी सभी समय सभी देशों में नीच कहलाये जाते हैं? भारतवर्ष को छोड़ अन्य सभी देशों के नीच शूद्र जागृत हो चुके हैं…एक समय ऐसा आयेगा जब शूद्र अपने शूद्रत्व के साथ ऊपर उठेंगे, यह उत्थान आज के समान नहीं होगा। वस्तुतः वैश्य या क्षत्रिय बने बिना ही, शूद्र रहते हुए ही वे लोग प्रत्येक समाज में पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करेंगे। इस नयी शक्ति की प्रभातकालीन किरणों का धीरे-धीरे फैलना पश्चिमी संसार में प्रारंभ हो गया है। भारतवर्ष में निम्नवर्गों का सुधार उस समय तक चलता रहेगा जब तक भारत उस राज्य शासन के अधीन रहेगा जो प्रजा से जाति और पद का भेद न रखते हुए व्यवहार करता है। मानव समाज का शासन क्रमशः एक दूसरे के बाद चार जातियों के द्वारा हुआ करता है, ये जातियां है; पुरोहित, योद्धा, व्यापारी और श्रमिक। सबसे अंत
में श्रमिक या शूद्र का राज्य आयेगा। प्रथम तीन तो अपने दिन भोग चुके हैं, अब चौथी अर्थात् शूद्र जाति का समय आया है। उनको वह सत्ता मिलनी ही चाहिए, उसे कोई रोक नहीं सकता। मैं समाजवादी हूं, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था मानता हूं बल्कि इसलिए कि एक पूरी रोटी न मिलने से तो अच्छा है आधी रोटी ही सही।’’
स्वामी विवेकानन्द ने सामाजिक परिवर्तन के संबंध में अपने सिद्धांत दिये हैं। उनका विश्वास था कि यद्यपि सामाजिक विकास का मूल ध्येय प्रगति है, किंतु यह प्रगति सरल रेखा में नहीं चलती है, उसकी गति तरंगवत होती है–यह प्रगति क्रमागत उत्थान और पतन के माध्यम से होती है। वे सामाजिक परिवर्तन के लिए युवाशक्ति को ही कारक के रूप में देखते थे–युवक ही समाज बदल सकते हैं। उनकी यह दृढ़ निष्ठा थी: ‘मैं तरुणों को संगठित करने के लिए ही पैदा हुआ हूं। मैं इन्हें दुर्दमनीय तरंगों की भांति चारों दिशा में भेज देना चाहता हूं, जिससे वे नीचे-से-नीचे और पददलित के दरवाजे तक सुख-सुविधा, नैतिकता, धर्म और शिक्षा को पहुंचा सकें। मैं यह करूंगा या फिर मर जाऊंगा।’’ युवकों को धार्मिक पूजा या भगवदगीता पढ़ने के बनिस्बत फुटबाल के खिलाड़ी होने की सलाह वे देते थे। उनका कहना था, ‘‘अपने स्नायुतंत्र को शक्तिशाली बनाओ। हम लोहे की मांसपेशियां और फौलाद के स्नायु चाहते हैं। हम बहुत रो चुके, अब अधिक न रोओ, अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और एक बेहतर इन्सान बनो।’ विवेकानन्द अपने चरित्र में विश्व के सभी धर्मों के प्रति सम्मान भाव रखते थे। उनके शिष्यों-अनुयायियों में सभी धर्म के लोग शामिल थे। अमेरिका-यूरोप के विभिन्न देशों में उन्होंने धार्मिक समभाव फैलाने वालों की फौज खड़ी की। सिस्टर निवेदिता ने तो सारा जीवन नारी-उत्थान के काम के लिए ही समर्पित कर दिया। आज जब हमारे भारतीय समाज में सांप्रदायिक कट्टरपंथी धार्मिक विद्वेष की आग भड़का रहे हैं, तब विवेकानन्द के द्वारा ईसाइयों, मुसलमानों, बौद्धों और अन्य मतावलंबियों को प्रेम, सहयोग तथा राष्ट्रीय एकता के लिए भाईचारे की दी गयी सलाह पर गौर करना लाजिमी है। उनके प्रिय शिष्य मुहम्मद सरफराज को लिखा गया उनका पत्र आज की परिस्थितियों में बहुत महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करता है। उसी पत्र में विवेकानन्द कहते हैं: ‘हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुंचाना चाहते हैं जहां न वेद है, न बाइबिल है, न क़ुरान है, परंतु ऐसा वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही हो सकता है।… हमारी मातृभूमि के लिए हिंदू और मुसलमान इन दोनों विशाल संप्रदायों का सामंजस्य वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर से ही संभव है, यही मेरी एकमात्र आशा है।’
पश्चिमी समाज के श्रोताओं के समक्ष विवेकानन्द ने यह बात सिद्ध करने की कोशिश की है कि विज्ञान के साथ धर्म का समन्वय, सत्य, यथार्थ आभास, मिथ्या धारणा, भ्रांति आदि की सम्यक् ज्ञानमीमांसा करने में केवल भारतीय संस्कृति ही समर्थ है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ऐसे अंतर्विरोधों का निराकरण सही समझ और व्यवहार से ही संभव है। भारतीय जीवन में धार्मिक कर्मकांडों और विश्वासों का ऐसा तानाबाना गुंथा हुआ है कि आधुनिकता के प्रगतिशील तत्वों को प्रतिष्ठापित करने के बार-बार के प्रयत्नों के बावजूद यहां की ऐतिहासिक जड़ता टूटती ही नहीं। आज इक्कीसवीं सदी में जब विश्व पूंजीवाद गहरे संकट की गिरफ़्त में है तब सामाजिक नियंत्रण और राज्यसत्ता के हस्तक्षेप की ज़रूरत साफ़ दिखायी दे रही है। राष्ट्र-राज्यों की वैश्विक एकता के संदर्भ में भारतीय नवयुवकों के समक्ष उत्तरआधुनिक चुनौतियां हैं। भारतीय समाज के नवनिर्माण की जि़म्मेदारी आज के भारतीय नौजवानों पर आती है।
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