प्रस्तुत पोस्ट Lord Gautam Buddha Hindi Biography यानि भगवान गौतम बुद्ध जीवन चरित में हम विश्व मे शांति और प्रेम का संदेश देने वाले तथागत की जीवनी पढ़ेंगे।
भगवान गौतम बुद्ध जीवन चरित
Lord Gautam Buddha Hindi Biography: गौतम बुद्ध शाक्यमुनि या तथागत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं. इनका जन्म 563 ई.पू. में शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के पास लुम्बिनी के राजकीय उपवन में वैशाख पूर्णिमा के दिन हुआ था. उनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के शासक थे. उनके जन्म के सात दिन बाद उनकी माता का निधन हो गया. अतः शिशु का पालन-पोषण उसकी सौतेली माँ गौतमी ने किया.
गौतम का बचपन सुरक्षा और सभी प्रकार की विलासिता में व्यतीत हुआ. 16 वर्ष की आयु में कपिलवस्तु के पड़ोसी राज्य के शासक की सुंदर पुत्री यशोधरा से इनका विवाह हुआ और उन्होंने तेरह वर्षों तक सुखी पारिवारिक जीवन व्यतीत किया. कालान्तर में बुद्ध की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसे बाद में राहुल नाम दिया गया.
कपिलवस्तु के राजप्रासाद में बुद्ध स्वयं को एक बंदी के रूप में अनुभव करते थे और जब कभी भी वे चोरी से महल के बाहर आए, तो प्रत्येक बार उन्हें कुछ बड़े मार्मिक अनुभव हुए.
दुख की अनुभूति
पहली बार उन्होंने एक जर्जर एवं कुरूप वृद्ध को देखा और इसके बाद कष्टग्रस्त बीमार व्यक्ति को देखा. तीसरी बार उन्होंने अंत्येष्टि के लिए ले जाते हुए एक मृतक को देखा. इन तीनों घटनाओं का उनके मन पर बहुत दुखद प्रभाव पड़ा और उन्होंने यह अनुभव किया कि जगत में दुख, कष्ट एवं मृत्यु सबको भोगने पड़ते हैं. अंततः उन्होंने एक धर्मनिष्ट भिक्षु या संन्यासी को देखा, जो पूर्णत: आत्मशांत एवं स्वस्थचित्त था।
इस आत्मशान्त व्यक्ति के व्यक्तित्व ने बुद्ध को अत्यंत प्रभावित किया. इसी प्रभाव के परिणाम स्वरूप 29 वर्ष की आयु में गौतम आत्मशक्ति की खोज में राजप्रासाद का परित्याग कर, एक संन्यासी का स्वतंत्र जीवन अंगीकार कर लिया. पूरे छ: वर्षों तक गौतम सांसारिक दुखों एवं कष्टों का समाधान खोजने में लीन रहे.
आत्म ज्ञान
इस अवधि में उन्होंने समकालीन धार्मिक विचारधाराओं का अध्ययन, अनुशीलन और विशलेषण किया. अंततः 35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा के दिन प्रात:काल उन्हें बिहार में बोधगया नामक स्थान पर संबोधि ( आत्म-ज्ञान ) की प्राप्ति हुई.
बुद्ध ने सारनाथ में अपना पहला धर्मोपदेश उन पांच भिक्षुओं को दिया जो तपश्चर्या के दौरान उनके साथ रह चुके थे. तदुपरांत पैतालीस वर्षों तक भगवान बुद्ध ने दुखी मानवता के कल्याण के लिए आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार करते हुए उत्तर भारत के विभिन्न भागों में परिभ्रमण किया. 80 वर्ष की आयु में 483 ई.पू. कुशीनगर में उनका देहांत या महापरिनिर्वाण हुआ.
बुद्ध द्वारा चलाये गए धर्म को बौद्ध धर्म या धम्म कहते हैं. बौद्ध धर्म में धम्म का अर्थ है – बुद्ध की शिक्षाएँ. बौद्ध धर्म का सार चत्वारि आर्य सत्यानि या चार आर्य सत्यों में निहित हैं. ये चार आर्य सत्य हैं – दुख , दुख समुदाय, दुख निदान या निरोध एवं दुख निदान मार्ग.
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बुद्ध ने कहा, “जो संबोधि का प्रयास करता है, उसे दो अतिवादी मार्गों से बचना चाहिए. ये दो अतिवादी मार्ग क्या हैं? भोग-विलास से युक्त जीवन जो अशिष्ट और निरर्थक होते हैं तथा आत्मदमन से पूर्ण जीवन कष्टकारी और समान रूप से निस्सार होता है.”
बौद्ध धर्म में निर्वाण या दुखों से मुक्ति का परम ज्ञान और मन की शांति का मार्ग आष्टांगिक मार्ग या मध्यम प्रतिपदा के रूप में जाना जाता है. यह मार्ग है:
- [सम्यक दृष्टि] अंधविश्वासों तथा भ्रांतियों से मुक्त सही दृष्टि
- [सम्यक संकल्प] सही विचार, उच्च और प्रबुद्ध उत्साही व्यक्ति
- [सम्यक वाक्] सम्यक वाणी, जो उदार, मुक्त एवं सत्यपूर्ण हो
- [सम्यक कर्मान्त] सम्यक कार्य, जो शांतिपूर्ण, सुंदर और शुद्ध हों
- [सम्यक आजीव] उपयुक्त जीविका, जो किसी भी प्राणी को क्षति या कष्ट बिना पहुंचाए अर्जित की जाए
- [सम्यक व्यायम] आत्मप्रशिक्षण और आत्मनियंत्रण की दिशा में सम्यक प्रयास
- [सम्यक स्मृति] सही सचेतना, सक्रिय एवं सतर्कमन
- [सम्यक समाधि] सही एकाग्रता एवं जीवन के गहन रहस्यों पर गंभीर चिन्तन
इनमें से प्रथम दो कारकों को प्रज्ञा स्कन्ध, अगले तीन कारकों को शील स्कन्ध तथा अंतिम तीन कारकों को समाधि स्कन्ध के अंतर्गत रखा गया है. लेकिन विकासक्रम के अनुसार यह अनुक्रम इस प्रकार है :
-
आचरण (शील)
-
ध्यान एवं (समाधि)
-
ज्ञान (प्रज्ञा)
बुद्ध ने अर्थहीन दुर्बोध प्रश्नों पर ध्यान नहीं दिया जो उस समय प्राचीन भारतीय धार्मिक विचारों और चिन्तन के प्रमुख विषय थे. इस प्रकार बुद्ध के धर्म में अध्यात्मवाद को स्थान नहीं मिला है. इसीलिए उन्होंने सर्वोच्च ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार कर दिया और विश्व के किसी स्रष्टा का आश्रय लिए बिना नैतिक उत्थान पर बल दिया. उन्होंने कहा, ”तुम स्वयं अपने दीपक बनो. स्वयं पर विश्वास करो और बाहरी सहायता का आश्रय न लो.” बुद्ध का यह विचार था कि ‘मन’ प्रत्येक मानवीय क्रिया का तंत्रिका केंद्र है. इसी कारण बौद्ध धर्म में ध्यान को ईश्वरीय प्राथनाओं एवं विभिन्न प्रकार की निवृत्तियों से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है.
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