प्रस्तुत पोस्ट Lord Krishna Quotes हम भगवान श्री कृष्ण के कुछ उपदेशों और विचारों के बारे में जानेंगे।

भगवान श्री कृष्ण के ब्रह्म वाक्य ( स्वयं विचार कीजिए!)
भगवान श्री कृष्ण ईश्वर का पूर्ण अवतार हैं. उनके श्रीमुख से निकला ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ का वाक्य जीवन को कर्मशील बनाने का सन्देश देता है. इस पोस्ट Lord Krishna Quotes में द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण के कुछ अनमोल वचनों को शेयर कर रहा हूँ. हो सके तो इस पर आप स्वयं विचार करें.
- इच्छा, आशा, अपेक्षा और आकांक्षा यही सब मानव समाज के चालक होते हैं। या नहीं ? यदि कोई आप से पूछे कि आप कौन हैं? तो आपका उत्तर क्या होगा ? विचार कीजिए।
आप तुरन्त ही जान पाएंगे कि आपकी इच्छाएं ही आपके जीवन की व्याख्या हैं। कुछ पाने से मिली सफलता-कुछ न पाने से मिली निष्फलता ही आपका परिचय है। अधिकतर लोग ऐसे जीते हैं कि स्वंय भीतर से मरते रहते हैं। लेकिन अपनी इच्छाओं को नहीं मार पाते। इच्छायें उन्हें दौड़ाती हैं। जिस प्रकार शेर एक मृग (हिरन) को दौड़ाता है। परन्तु इन्ही इच्छाओं के गर्भ में ही ज्ञान का प्रकाश छुपा है, कैसे ?
जब इच्छायें अपूर्ण रहती हैं और टूटती हैं। तब वहीं से ज्ञान की किरण प्रवेश करती है मनुष्य के ह्दय में …
स्वयं विचार कीजिए!
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2. सन्तानों के भविष्य को सुख से भरने का प्रयत्न करना यही प्रत्येक माता-पिता का सर्वप्रथम कर्तव्य होता है। जिन्हें आप इस संसार में लाये हैं और जिनके कर्मों से ये जगत आपका पूर्ण परिचय पायेगा भविष्य में.… उनके भविष्य के सुख की योजना करने से अधिक महत्वपूर्ण कार्य और हो भी क्या सकता है! किन्तु सुख और सुरक्षा क्या ये मनुष्य के कर्मों से प्राप्त नहीं होते ? माता-पिता के दिये हुए अच्छे या बुरे संस्कार उनकी दी हुई योग्य अथवा अयोग्य शिक्षा. क्या आज के सारे कर्मों का मोल नहीं ? संस्कार और शिक्षा से बनता है मनुष्य का चरित्र, अर्थात माता-पिता अपनी सन्तानों का जैसा चरित्र बनाते हैं । वैसा ही बनता है उनका भविष्य……
किन्तु फिर भी अधिकतर माता-पिता अपनी सन्तानों का भविष्य सुरक्षित करने की चिन्ता में उनके चरित्र के निर्माण का कार्य भूल ही जाते हैं। अर्थात जो माता-पिता अपनी सन्तानों के भविष्य की चिन्ता करते हैं वास्तव में उन्हें कोई लाभ होता ही नहीं, किन्तु जो माता-पिता अपनी सन्तानों के भविष्य की नहीं अपितु उनके चरित्र का निर्माण करते हैं उन संतानों की प्रशस्ति(प्रशंसा ) सारा संसार करता है।
स्वयं विचार कीजिए!
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3. कभी-कभी कोई घटना मनुष्य के सारे जीवन की योजनाओं को तोड़ देती है और मनुष्य उस आघात को अपने जीवन का केन्द्र मान लेता है। पर क्या भविष्य मनुष्य की योजनाओं के आधार पर निर्मित होता है? नहीं ……! जिस प्रकार किसी ऊँचे पर्वत पर चढने वाला उस पर्वत की तलाई में बैठ कर जो योजना बनाता है। क्या वही योजना उसे उस पर्वत की चोटी तक पहुँचाती हैं। नहीं ……
वास्तव में वो जैसे-जैसे ऊपर चढता है। वैसे-वैसे उसे नई-नई चुनौतियाँ, नई-नई परेशानियाँ और नये-नये अवरोध मिलते हैं। प्रत्येक पद पर वो अपने अगले पद का निर्णय करता है। प्रत्येक पद पर उसे अपनी योजनाओं को बदलना पडता है। इसलिए कहीं पुरानी योजना उसे खाई में न धकेल दे। वो पर्वत को अपने योग्य नहीं बना पाता…… केवल स्वंय को पर्वत के योग्य बना सकता है। क्या जीवन के साथ भी ऐसा ही नहीं ?
जब मनुष्य जीवन में किसी एक चुनौती या एक अवरोध को अपने जीवन का केन्द्र मान लेता है तो वह अपने जीवन की गति को ही रोक देता है। तो वो अपने जीवन में सफल नहीं बन पाता और न ही सुख और शान्ति प्राप्त कर पाता अर्थात जीवन को अपने योग्य बनाने के बदले…… स्वंय अपने को जीवन के योग्य बनाना ही सफलता और सुख का एक मात्र मार्ग नहीं?
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4. भविष्य का दूसरा नाम है संघर्ष…… ह्दय में आज इच्छा होती है और यदि पूर्ण नहीं हो पाती तो ह्दय भविष्य की योजना बनाता है भविष्य में इच्छा पूर्ण होगी ऐसी कल्पना करता रहता है।
किन्तु जीवन…… जीवन न तो भविष्य में है और न अतीत में…… यह जीवन तो बस इस क्षण का नाम हैं। अर्थात इस क्षण का अनुभव ही जीवन का अनुभव हैं। पर हम ये जानते हुये भी इतना सा सत्य समझ नहीं पाते। या तो हम बीते हुये समय के स्मरणों (दुख के पल) को घेर कर बैठे रहते हैं। या फिर आने वाले समय के लिए हम योजनायें बनाते रहते हैं। और जीवन? जीवन बीत जाता है। एक सत्य यदि हम ह्दय में उतार लें…… कि न हम भविष्य देख सकते हैं और न ही भविष्य निर्मित कर सकते । हम तो केवल धैर्य और साहस के साथ भविष्य को आलिंगन दे सकते हैं। स्वागत कर सकते हैं भविष्य का…… तो क्या जीवन का हर पल जीवन से नहीं भर जायेगा???
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5. पूर्वजो की इच्छा, आशा, महत्वकांक्षा, क्रोध, वैर, प्रतिशोध आने वाली पीठी की धरोहर बनते हैं। माता-पिता अपनी सन्तानों को देना तो चाहते हैं समस्त संसार का सुख…… पर देते हैं अपनी पीठाओं की संपत्ति …… देना चाहते हैं अमृत पर साथ ही साथ विष का घडा भी भर देते हैं। आप विचार कीजिए कि आपने अपनी सन्तानों को क्या दिया आज तक? अवश्य प्रेम, ज्ञान, सम्पत्ति आदि दी है पर क्या साथ ही साथ उनके मन को मैल से भर देने वाले पूर्वतः नहीं दिये? अच्छे-बुरे की पूर्व निधारित व्याख्यायें नहीं की? व्यक्ति का व्यक्ति के साथ, समाजों का समाजों के साथ, विश्व का विश्व के साथ संघर्ष…… क्या ये पूर्व ग्रह से निर्मित नहीं होते? हत्या, मृत्यु, रक्तपात क्या इन्हीं पूर्व ग्रह से नही जन्मते……
अर्थात माता-पिता जन्म के साथ अपनी सन्तानों को मृत्यु का दान भी दें देते हैं। प्रेम के प्रकाश के साथ-साथ घृणा का अन्धकार भी देते हैं। और अन्धकार मन का हो, ह्दय का हो या वास्तविक हो उससे केवल भय(डर) ही प्राप्त होता है।
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6. मनुष्य के ह्दय में भय का साम्राज्य रहता है सदा…… कभी सम्पत्ति के नाश का भय,कभी अपमान का भय,कभी अपनो से छुट जाने का भय इसलिए भय का होना सबको स्वाभाविक ही लगता है। क्या कभी सोचा है जो स्थिति अथवा वस्तु भय को जन्म देती है क्या वहीं से वास्तविक दुख आता है? नहीं …… ऐसा तो कोई नियम नहीं …… और सबका अनुभव तो ये बताता है कि भय धारण करने से भविष्य के दुख का निवारण नहीं होता। भय केवल आने वाले दुख की तरह कल्पना मात्र ही है। वास्तविकता से इसका कोई सम्बंध नहीं है।
तो क्या ये जानते हुए भी कि भय(डर) कुछ और नहीं केवल कल्पना मात्र ही है। इससे मुक्त होकर निर्भय बन पाना……क्या बहुत कठिन है?
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7. मनुष्य के सारे सम्बन्धों का आधार है अपेक्षा. पति कैसा हो? वह जो मेरा जीवन सुख और सुविधाओं से भर दे। पत्नी कैसी हो? जो सदैव मेरे प्रति समर्पित रहे। सन्तान कैसी हो? जो मेरी सेवा करे मेरा आदेश माने…… मनुष्य उसी को ही प्रेम कर पाता है जो उसकी अपेक्षा पूर्ण करता है। किन्तु अपेक्षा की तो नीति ही है भंग होना । कैसे ?
क्योंकि अपेक्षा मनुष्य के मतिष्क में जन्म लेती है। कोई अन्य व्यक्ति उसकी अपेक्षाओं के बारे में जान ही नहीं पाता। पूर्ण करने की प्रमाणिक इच्छा हो तब भी मनुष्य किसी की अपेक्षाओं को पूर्ण नहीं कर पाता। और वहाँ से जन्म लेता है संघर्ष…… सारे सम्बन्ध संघर्ष मे परिवर्तित हो जाते हैं पर मनुष्य अपेक्षाओं को सम्बन्ध का आधार न बनाये और स्वीकार करे केवल सम्बन्ध का आधार…… तो क्या ये जीवन स्वंय सुख और शान्ति से नहीं भर जायेगा ?
स्वयं विचार कीजिए!
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8. जीवन का हर क्षण निर्णय का क्षण होता है प्रत्येक पद पर दूसरे पद के विषय मे कोई निर्णय करना ही पडता है और निर्णय…… निर्णय अपना प्रभाव छोड जाता है। आज किये हुये निर्णय भविष्य में सुख और दुख निर्मित करते हैं न केवल अपने लिए अपितु अपने परिवार के लिए भी और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी….. जब कोई परेशानी आती है तो मन व्याकुल हो जाता है अनिश्चय से भर जाता है। निर्णय का वो क्षण युध्द बन जाता है। और मन बन जाता है युध्द भूमि…. अधिकतर निर्णय हम परेशानी का उपाय करने के लिए नहीं केवल मन को शान्त करने के लिए लेते हैं। पर क्या कोई दौड़ते हुए भोजन कर सकता है? नहीं ….
तो क्या युध्द से जूझता हुआ मन कोई योग्य निर्णय ले पायेगा?
वास्तव में शान्त मन से किया गया निर्णय अर्थात शान्त मन से कोई निर्णय करता है तो अपने लिए सुखद भविष्य बनाता है। किन्तु अपने मन को शान्त करने के लिए जब कोई व्यक्ति निर्णय करता है तो वो व्यक्ति भविष्य में अपने लिए कांटो भरा वृक्ष लगाता है।
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9. समय के आरम्भ से ही एक प्रश्न मनुष्य को सदैव पीडा(दुख)देता है कि वो अपने सम्बन्धो में अधिक से अधिक सुख और कम से कम दुख किस प्रकार प्राप्त कर सकता है? क्या आपके सारे सम्बंधो ने आपको सम्पूर्ण सन्तोष दिया है? हमारा जीवन सम्बंधो पर आधारित है और हमारी सुरक्षा सम्बंधो पर आधारित है। इसी कारण हमारे सारे सुखो का कारण भी सम्बंध ही हैं। किन्तु फिर भी हमें सम्बंधो में दुख क्योँ प्राप्त होते हैं? सदा ही संघर्ष भी सम्बंधो से क्योँ उत्पन्न हो जाते हैं?
जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विचारों को स्वीकार नहीं करता अथवा उसके कार्यो को स्वीकार नहीं करता उसमे परिवर्तन करने का प्रयत्न करता है तो संघर्ष जन्म लेता है। अर्थात जितना अधिक अस्वीकार उतना ही अधिक संघर्ष और जितना ही अधिक स्वीकार उतना ही अधिक सुख। क्या यह वास्तविकता नहीं ? यदि मनुष्य स्वंय अपनी अपेकक्षाओं पर अंकुश रखे और अपने विचारो को परखे। किसी अन्य व्यक्ति मे परिवर्तन करने का प्रयत्न न करे। स्वंय अपने भीतर परिवर्तन करने का प्रयास करे। तो क्या सम्बंधो में सन्तोष प्राप्त करना इतना कठिन है? अर्थात क्या स्वीकार ही सम्बंधो का वास्तविक आधार नहीं ?
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10. जब किसी व्यक्ति को किसी घटना में अन्याय का अनुभव होता है तो वो घटना उस व्यक्ति के अन्तर को झकझोड देती है। सारा संसार उसे अपना शत्रु प्रतीत होता है। अन्याय लगने वाली घटना जितनी बडी होती है। मनुष्य का ह्दय भी उतना ही अधिक विरोध करता है। उस घटना के उत्तर में वो व्यक्ति न्याय मांगता है। और ये योग्य भी है। वास्तव में समाज में किसी भी प्रकार का अन्याय व्यक्ति की आस्था और विश्वास का नाश है। किन्तु ये न्याय है क्या? और न्याय का अर्थ क्या है? अन्याय करने वाले को अपने कार्य पर पश्चाताप हो और अन्याय भुगतने वाले व्यक्ति के मन में फिर से विश्वास जगे समाज के प्रति। इतना ही अर्थ है न न्याय का……!
किन्तु जिस व्यक्ति के ह्दय में धर्म नहीं होता वो न्याय को छोडकर वैर और प्रतिशोध को अपनाता है। हिंसा के बदले प्रति हिंसा की भावना लेकर चलता है स्वंय भोगी हुई पीडा से कहीं अधिक पीडा देने का प्रयत्न करता है और इस मार्ग पर चलने वाला अन्याय को भुगतने वाला व्यक्ति स्वंय अन्याय करने लगता है। शीघ्र ही वो अपराधी बन जाता है। अर्थात न्याय और प्रतिशोध के बीच बहुत कम अन्तर होता है और इसी अन्तर का नाम है धर्म। क्या ये सत्य नहीं ?
स्वयं विचार कीजिए!
क्रमशः जारी ….
यह पोस्ट श्री अजय सैनी जी (मुरादाबाद ) ने भेजा है. हम तहे दिल से उनका धन्यवाद देते हैं और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं. धन्यवाद!
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