Indira Gandhi Memories of My Mother माँ की यादें
Indira Gandhi was a popular Prime Minister of India. She was the grandmother of Rahul Gandhi, Priyanka Gandhi and Varun Gandhi. प्रस्तुत पोस्ट में इंदिरा गाँधी ने अपनी माँ के जीवन से जुडी कुछ अविस्मरणीय याद का यहाँ उल्लेख किया है। उनके जीवन की प्रत्येक घटना से मिलने वाली प्रेरणा को उन्होंने अपने लिए आदर्श बना लिया क्योंकि बचपन के संस्कार हमारे संपूर्ण जीवन पर एक अमिट छाप छोड़ देते हैं।
‘मेरी माँ’ इस विषय पर लडकी का बोलना कितना कठिन है । मन में हजारों तस्वीरें आती हैं ।कौन सी सामने रखूं बरसों से इन्हें छिपाने का पय्र त्न कर रही थी, लेकिन आज पर्दा खोलती हूँ । कुछ खास बात तो बतला नहीं सकती क्योंकि हमारी जिन्दगी जनता के सामने एक खुली किताब है और आप उससे परिचित होंगे ।
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जो पहली बात मुझे याद है, वह उस जमाने की है जब गाँधी जी हिंदुस्तान में थे और सत्याग्रह, स्वदेशी और खादी जैसे इंकलाबी ख्याल पैदा हुए थे। इनका असर मेरे पिता और दादा पर जोरों से पड़ा। दावतें बंद हुईं। मखमल, साटिन इत्यादि उतारे गए और चैराहे पर खूब चमकती रंग-बिरंगी पोशाकों के गट्टरों जला दिए गए। खादी पहनना शुरू हुआ। वह कैसी सी खादी थी- खुरदरी, टाट जैसी मोटी। माँ का सारा शरीर छिल जाता था, लेकिन इस लिबास में भी उनकी खूबसूरती और नशाकत फूलों जैसी खिलती थी।
गहने-कपड़ों का उनको बिल्कुल शौक नहीं था। छुटपन में वे अपने भाइयों के साथ खेलती-कूदती थीं क्योंकि उनकी बहन उनसे बहुत छोटी थी। इस आदत से उनको एक दफा काफी परेशानी उठानी पड़ी। जब वे नौ या दस साल की थीं तो कुछ समय के लिए सारा परिवार जयपुर गया। वहाँ सख्त पर्दा था और कमला जी से कहा गया कि वे केवल डोली में बैठ कर ही बाहर जा सकेंगी।
रोने-पीटने से कुछ नहीं बना। लेकिन जिसको अभी तक पूरी आजादी थी, वह इस कैद में कैसे रहे? जब देखा कि उनका चेहरा उतरा जा रहा है और दिन-पर-दिन वजन घट रहा है तो मेरी नानी घबराई और एक तरकीब सोची। उस दिन से वे रोज सुबह अपने भाई के कपड़े पहनकर और बालों को पगड़ी में छिपाकर भाइयों के साथ घूमने जाती थीं। किसी को पता भी नहीं चला लेकिन उनके सचेतन दिमाग पर इस घटना का भारी असर पड़ा और वे सदैव पर्दे के विरुद्ध प्रचार करती रहीं।
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एक दफा और भी उन्होंने मर्दों का लिबास पहना, सन् 1930 में जब वे कांग्रेस वालंटियर बनी थीं। मुझे भी बचपन में वे अक्सर लड़कों के कपड़े पहनाती थीं। इससे जनता को बड़ी परेशानी होती थी। अक्सर मुझसे लोग पूछते थे, तुम्हारा भाई कहाँ है? जब मैं जवाब देती कि मेरा कोई भाई नहीं है तो वे कहते, वाह! हमने अपनी आँखों से देखा है। 17 वर्ष की उम्र में जब वे अपने माता-पिता के घर को छोड़कर आनंद भवन की झलकती दुनिया में आईं तो उनको क्या मालूम था कि किस लंबे और दुख भरे मार्ग पर चलना होगा।
इस वक्त मेरे दादा जी की वकालत खूब चल रही थी। वे प्रांत के सबसे बड़े आदमियों में गिने जाते थे। बड़े दिमाग और बडे़ दिल के आदमी थे, शौकीन तबीयत के, खूब कमाते थे और खर्चते भी थे। हमारा घर हमेशा मेहमानों से भरा रहता, तरह-तरह के लोग, बड़े-बड़े अफसर, लेखक, कवि, अंग्रेज और हिंदुस्तानी भी। रोज दावतें होतीं और दादा जी की खुशी से घर गूँज उठता। घर के दो हिस्से थे। एक तरफ अंग्रेजी तरीके के बैठने और खाने के कमरे और दूसरी तरफ देसी तरीके के। रोज दोनों तरह के खाने बनते। मेरी फुफी की मेट्रन अंग्रेज थी और हमारा ड्राइवर भी एक अंग्रेज मिस्टर डिक्सन था।
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कश्मीरी घरों में औरतें पर्दा नहीं करती और मेरी दादी भी विलायत घूम आई थीं। घर की सँभाल और मेहमानदारी का बोझ अधिकतर माँ पर था। नए तरीके सीख रही थीं कि जिन्दगी पलट गई और सारा परिवार जोरों से कांग्रेस के आंदोलन में भाग लेने लगा। जेल की यात्राएँ तथा अनेक कठिनाइयाँ शुरू हुईं। अपने उत्साह और हिम्मत से उन्होंने गाँधी जी पर अवश्य कुछ असर डाला होगा क्योंकि गाँधी जी ने खास तौर पर स्त्रियों को पुकारा कि वे भी बाहर निकलें और काम का बोझ उठाने में अपने भाइयों की सहायता करें। माँ अपने बचपन का प्रण नहीं भूली थीं। जीवन भर गाँधी जी के साथ जहाँ जातीं, औरतों को पर्दे से निकालने का प्रयत्न करतीं और समझातीं कि अपने अधिकारों के लिए वे कैसे लड़ें? उनके कहने से हजारों औरतें कांग्रेस का काम करने लगीं।
माँ को अब बीमारी घेर रही थी। तब भी वे वालंटियर बनी और काम करती रहीं। बाद में जब नेता गिरफ्रतार होने लगे तो वे और जोरों से काम करने में जुट गईं और इलाहाबाद शहर तथा जिले का संगठन अपने ऊपर इस बल और दृढ़ता से उठाया कि सब दंग रह गए। चारों ओर से उनकी योग्यता की प्रशंसा हुई।
उनके पति जवाहरलाल और ससुर मोतीलाल जी तो फूले नहीं समाए। लेकिन सबके मन में चिंता थी, क्योंकि उनकी सेहत आहिस्ता-आहिस्ता टूट रही थी। वे किसी की भी नहीं सुनती थीं। सन् 1930 में वे कार्यकारिणी की सदस्या बनाई गईं और थोड़े दिन बाद ही गिरफ्तार कर ली गईं। गिरफ्तारी की खबर रात को ही मिल गई थी। हम लोग रातभर जागते रहे। ऐसे मौके पर भी उनको दूसरों का ही ख्याल आता। जो भी काम अधूरे रह गए थे, उन्हें पूरा करने की कोशिश की ताकि उनके जाने के बाद किसी को कठिनाई न हो।
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कहते हैं जब दुःख और पीड़ा इंसान पर पड़ती है, तभी उसका चेहरा दिखाई देता है। जो कमजोर होते हैं, उनको दुःख तोड़कर दबा देता है, लेकिन जो बहादुर होते हैं, वे उस दुःख से सीख लेकर आगे बढ़ जाते हैं और उनमें छिपी हुई ताकत और स्वाभाविक सौंदर्य चमक उठता है, कमला जी ऐसी ही थीं। डाँटती तो वे कभी भी नहीं थीं, न ऊँची आवाज में बोलती थी लेकिन, उनका प्रभाव ऐसा था कि जो वे कहती थीं, वही होता था।
हमारे यहाँ पंडित मदन मोहन मालवीय जी के भतीजे संस्कृत पढ़ाने आते थे। वे माँ का बहुत आदर करते और उनसे डरते भी थे। मुझे आश्चर्य होता था कि इतनी मधुर, दुबली-पतली औरत से डर कैसा? पंडित कहते, अरे! तुम्हें नहीं मालूम, वे बड़ी शक्ति की देवी हैं, जो चाहे कर सकती हैं। इस पर माँ हमेशा हँसती थी।
परंतु कुछ शक्ति उनमें थी जरूर। जो भी उनसे मिलता, उस पर गहरा प्रभाव पड़ता। मैं तो मानती हूँ कि मेरे पिता जी पर भी उनके विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। जैसे आमतौर पर पूजा-पाठ होता है, उससे वे बहुत चिढ़ती थीं। कहती थीं कि जो लोग ऊपर से ईश्वर का नाम लेते हैं लेकिन विचारों की उधेड़बुन में पड़े रहते हैं, उन्हें दिखावटी धर्म की जरूरत होती है। मंदिर जाना भी इसी वजह से पसंद नहीं करती थी। लेकिन माँ की भक्ति भी बहुत गहरी थी। रोज हम लोगों से गीता और रामायण का पाठ करवाती थीं। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, उनकी यह भक्ति और अंदरूनी शक्ति भी बढ़ती गई। बाद में वे नदी के किनारे घंटों समाधि में बैठी रहती थीं।
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सेवा-भाव तो उनमें था ही, गरीबों की पढ़ाई और बेहतरी में वे खासतौर पर दिलचस्पी लेतीं। जब 1928 में मेरे दादा ने अपने बड़े घर को कांग्रेस को दान कर दिया और उसका नाम ‘स्वराज्य भवन’ रख दिया तो माँ ने उसके एक हिस्से में अस्पताल खोला।
37 वर्ष की उम्र में घर और प्यारे देश से हजारों मील दूर उनका देहांत हुआ। आखिर तक वे मुस्कराती रहीं और हम सब को साहस देती रहीं। उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका अस्पताल बंद न हो। इस इच्छा को पूरा करने के लिए महात्मा गाँधी , पंडित मदन मोहन मालवीय और अन्य नेताओं ने इस स्मारक के नाम से इलाहाबाद में स्त्रियों के लिए अस्पताल खोल दिया। गाँधी जी के हाथों उसका उद्घाटन हुआ। वहाँ सैकड़ों मीलों से मरीज आते हैं। जैसी सेवा वे अपने जीवन में करती थीं, वैसी ही उनके नाम से अब भी हो रही है।
श्रीमती इंदिरा गाँधी
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Ansaar says
Nice story
BluePrint says
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Vijay Chandora says
nyc post sir bahut hi achhi jankari di hai aapne