Padmavati Story History Facts in Hindi पदमावती जीवन गाथा ऐतिहासिक तथ्य समग्र जानकारी
प्रस्तुत पोस्ट Padmavati Story History Facts in Hindi में रानी पदमावती के जीवन और इतिहास के बारे विस्तृत जानकारी दी गयी है. मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा रचित महाकाव्य ‘पदमावत’ अपने-आप में एक मार्मिक प्रेम कहानी है. महाकाव्य के ढाँचे में कही गई प्रेम कहानी-जिसमें कल्पना और इतिहास का रोचक मिश्रण है. कहानी का पूर्वार्ध कल्पना पर आधारित है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक यथार्थ पर. पहले इस प्रेमकहानी को प्रेमकहानी के रूप में देखना ही उचित है जो इस प्रकार है.
रानी पद्मावती की प्रेम कहानी Love Story of Rani Padmavati
सभी द्वीपों में अलग अद्वितीय सिंहलद्वीप के राजा गंधर्वसेन और रानी चम्पावती के यहाँ पदमावती ने जन्म लिया. लगा कि वह सूर्य की किरणों से रची गई थी. जब वह बड़ी होने लगी, उसके विवाह के लिए वर पक्ष की ओर से प्रस्ताव आने लगे. पर अपने गर्व में राजा गंधर्वसेन उन्हें नकारात्मक उत्तर देकर लौटा देते. बारह वर्ष की आयु में पदमावती वयस्क समझी जाने लगी. उसे सात खंडों वाला धवलगृह स्वतंत्र रूप से रहने के लिए मिला. खेल-विनोद के लिए सखियाँ मिली. ज्ञान चर्चा के लिए अत्यंत गुणी और पंडित स्वभाव वाला तोता मिला – हीरामन. एक दिन पदमावती ने हीरामन से अपनी काम-विकलता और अपने विवाह के प्रति पिता की उदासीनता की चर्चा की.
तोते ने कहा – विधाता का लेख तो अमिट है पर मुझे आज्ञा दो, कि तुम्हारे योग्य वर खोज सकूँ. किसी दुर्जन ने यह संवाद राजा तक पहुँचा दिया. राजा ने तोते को मार डालने के लिए आदेश दिया. पदमावती ने अपने अनुनय-विनय से तोते को बचा लिया. तोता जानता था कि इस बार तो वह बच गया पर आगे उसका जीवन सुरक्षित नहीं.
हीरामन तोता उड़ निकला….
एक दिन जब पदमावती सखियों के साथ सरोवर-स्नान के लिए गई थी, हीरामन उड़ निकला. जहाँ वह पहुँचा वह ढाक का जंगल था. पक्षियों से उसे सहज सम्मान मिला. उधर पदमावती ने आकर देखा, तोता पिंजरे को सूना छोड़कर चला गया था. वह बहुत रोई. सखियों से उसने तोते की खोज के लिए निवेदन किया. सखियों ने समझाया- अब वह स्वतंत्र हो गया है – इस बंधन में क्यों आएगा. उधर जंगल में आए हुए बहेलिए ने तोते को पकड़ लिया और बाजार में उसे बेचने के लिए ले गया.
चित्तौड़ के एक व्यापारी के साथ एक साधारण ब्राह्मण भी कुछ रूपये लेकर लाभ की आशा में सिंहल की हाट में आया था. सब व्यापारियों ने कुछ न कुछ खरीदारी की और घर लौटने की तैयारी करने लगे. ब्राह्मण की गाँठ में पूँजी इतनी कम थी कि वह चिंता में सोचता ही रह गया कि क्या खरीदें. तभी वह बहेलिया तोते को बेचने आ पहुँचा. उसका रंग सुनहला था और उसमें एक अद्भुत सम्मोहन भी था. ब्राह्मण ने तोते को सीधे सम्बोधित कर उसके गुणों के बारे में जिज्ञासा की, तोते ने कहा- “जब मैं गुणी था, तब मुक्त था. मैं बिकने आ गया हूँ अब मेरे गुण कहाँ.” पर ब्राह्मण ने जान लिया कि वह गुणी और पंडित है. उसने तोते को खरीद लिया और उसे चित्तौड़ ले आया.
रत्नसेन का मूर्छित होना
चित्तौड़ में उस समय राजा चित्रसेन की मृत्यु हो चुकी थी उसका पुत्र रत्नसेन गद्दी पर बैठा था. तोते की प्रशंसा सुन उसने उसे लाख रूपये देकर खरीद लिया. एक दिन जब रत्नसेन शिकार पर निकला था, उसकी रूपगर्विता पटरानी नागमती ने तोते से प्रश्न किया- “मुझ जैसी सुन्दरी क्या कोइ दूसरी भी इस दुनिया में है.” हीरामन ने हंसकर सिंहल की पदमिनी स्त्रियों का वर्णन किया और कहा – उनमें और तुममें दिन और अंधेरी रात का अंतर है. वह पदमावती-सुगन्धित सोने से गढी है- रूप और उसमें सहज व्याप्त है.
नागमती के लिए वह वर्णन असहय था. वह डर गई थी कि यदि यही बात कहीं वह राजा से कह दे तो रूप के प्रलोभन से योगी होकर चल देगा. उसने अपनी धाय से उसे मार डालने के लिए कहा. धाय ने भावी परिणाम के भी से हीरामन को बस छिपा लिया.
जब रत्नसेन ने आकर देखा- तोता नहीं है – वह क्रोध से भर उठा. अंत में हीरामन सामने लाया गया और उसने सारा वृत्तांत कहते हुए पदमावती के अपार रूप का वर्णन किया – उस रूप का – जो अपनी उपमा आप ही है – का सिंगार ओहि बरनौ राजा. ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा . यह वर्णन सुनकर रत्नसेन मूर्च्छित हो गया. जब चेतना लौटी, वह पदमावती की खोज में योगी होकर निकल पड़ा. हीरामन ही उसे सिंहलद्वीप का रास्ता दिखा रहा था. रत्नसेन ने माँ और पत्नी के विलाप पर ध्यान न दिया. उसकी आसक्ति एक ही दिशा की ओर खींची हुई थी.
रत्नसेन द्वारा पद्मावती का ध्यान
राजा रत्नसेन की इस यात्रा में उसके साथ सोलह हजार कुँवर भी योगी होकर चले. एक महीने तक लगातार चलते हुए वे कलिंग में समुद्र तट पर पहुंचे. वहाँ के राजा ने सिंहलद्वीप जाने के लिए उन्हें जहाज दिया. सात समुद्र पार कर वे सिंहलद्वीप पहुँचे .सातवाँ समुद्र मानसर ही था –जिसके सुंदर रूप को देखकर जो प्रसन्नता हुई, वही कमल की बेल बनकर मन पर छा गई. अँधेरा चला गया था. रात्रि की कालिमा छूट चुकी थी.
हीरामन के निर्देशन से रत्नसेन महादेव के मन्दिर में योगियों के साथ बैठकर पदमावती का ध्यान करने लगा. हीरामन पदमावती से मिलने गया तो कहकर गया – कि बसन्त पंचमी के दिन पदमावती इसी महादेव के मण्डप में बसन्तपूजा के लिए आयेगी. उस समय तुम वह अपार रूप देख सकोगे.
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इतने समय बाद हीरामन को पाकर पदमावती बहुत रोई. उस तोते ने अब तक जो घटित हो चुका था, वह सब बताया और फिर रत्नसेन के गुणों तथा उसके प्रेम की पात्रता, दृढ़ता की चर्चा की. पदमावती उसकी प्रेमविकलता से प्रभावित हुई. उसे लगा कि वही विकलता उसके मन में भी कुछ नए अनुभवों का संसार बना रही थी. उसने कहा – बसन्त पंचमी के दिन मैं पूजा के बहाने मन्दिर में जाऊँगी. तोता हीरामन ने मन्दिर में ध्यानलीन रत्नसेन तक यह संदेश पहुँचा दिया.
बसन्त पंचमी के दिन पदमावती सखियों के साथ महादेव के मन्दिर में गई. पूजा करके वह योगियों को देखने के बहाने उस ओर गई जहाँ रत्नसेन ध्यान में लीन था. रत्नसेन उसके रूप को देखते ही संज्ञाशून्य हो गया. पदमावती ने उसे चेतना की स्थिति में लाने के लिए चन्दन का लेप किया जिससे वह और भी प्रगाढ़ नींद में लीं हो गया.
देवी पार्वती द्वारा रत्नसेन की परीक्षा
पदमावती ने उसके हृदय पर चन्दन से ये अक्षर लिख दिए – ‘हे योगी जब मैं तेरे द्वार पर आई तू सो गया. यदि मुझ (चन्द्रमा) पर तेरी (सूर्य की ) अनुरक्ति होगी तू गढ़ में प्रवेश कर सतमंजिले महल तक आएगा.’
रत्नसेन की चेतना लौटी तो न वह बसन्त था, न वह वाटिका थी, न खेल था, न खेलने वाली. वह पश्चाताप से विलाप करने लगा और उसने जल मरने का निश्चय किया. उसकी विरहाग्नि सारे संसार को जला सकती है, इस भय से देवताओं ने महादेव-पार्वती को सूचित किया कि वे कुछ करें. महादेव कोढ़ी के वेश में बैल पर चढ़कर रत्नसेन के पास आये और जलने का कारण पूछा.
उधर पार्वती ने उसके सच्चे प्रेम की परीक्षा के लिए यह छल किया. वे रत्नसेन के पास अप्सरा वेश में प्रकट हुई और बोली – ‘मैं स्वर्ग की अप्सरा हूँ. मुझे इंद्र ने तुम्हारे लिए भेजा है.पदमावती तो गई .अब मैं हूँ.’ रत्नसेन ने कहा – मुझे न स्वर्ग चाहिए न अप्सरा. मुझे पदमावती के अतिरिक्त कोई कामना नहीं. तुम्हारा रूप आकर्षक है पर मैं क्या करूं. मुझे तो दूसरे से प्रयोजन ही नहीं. उसके लिए प्राण दे दूंगा तो न जाने तुम्हारे स्वर्ग में क्या कुछ घटित हो जाएगा.
पार्वती ने तब महादेव से कहा – इसका प्रेम सच्चा है. आप इसकी सहायता करें. रत्नसेन ने महादेव के रूप को भी पहचान लिया और उसके चरणों में गिर पड़ा. महादेव ने उसे सिद्ध गुटिका दी और सिंहलद्वीप में प्रवेश का मार्ग बताया. वे फिर अन्तर्धान हो गये.
रत्नसेन द्वारा पद्मावती का माँगना
सिद्धि गुटिका पाकर राजा रत्नसेन ने योगियों के साथ सिंहलगढ़ को घेर लिया. दुर्गरक्षकों ने राजा गंधर्वसेन को उसके दुस्साहस की सूचना दी . राजा ने अपने दूत भेजे, जिन्होंने यह संदेश दिया कि तुम्हें जो भीख चाहिए, माँग लो, और जप-तप के लिए अन्यत्र स्थान चुनो. रत्नसेन ने पदमावती की ही माँग की. दूत क्रुद्ध लौटे. गंधर्वसेन के क्रोध का ठिकाना न रहा. उसने योगियों को मारकर भगा देने का आदेश दिया.
मंत्रियों ने योगियों से उलझने की सलाह न दी. इस बीच हीरामन ने रत्नसेन का प्रेमसंदेश पदमावती तक और पदमावती का संदेश रत्नसेन तक पहुँचा दिया. इससे रत्नसेन की प्रेम साधना और पुष्ट हुई. गढ़ के भीतर के अथाह कुण्ड में वह रात में जा धंसा और भीतरी द्वार को, जिसमें वज्र के किवाड़ लगे थे, खोल लिया. पर तभी सबेरा हो गया और रत्नसेन अपने साथियों के साथ घेर लिया गया.
राजा गन्धर्वसेन का निश्चय था – योगियों को सूली दे दी जाये. उसके सरदारों ने योगियों पर चढाई की. योगी भी युद्ध के लिए प्रस्तुत थे, पर रत्नसेन ने उन्हें यह कह कर रोक लिया कि प्रेम के मार्ग में क्रोध के लिए स्थान नहीं. अंततः योगियों सहित रत्नसेन बंदी बना लिया गया. पदमावती की विकलता की कोइ सीमा नहीं थी पर हीरामन ने रत्नसेन को अब पूर्ण सिद्ध बताकर उसे आश्वस्त किया कि उसका अनिष्ट नहीं हो सकता.
रत्नसेन और पद्मावती का विवाह Marriage of Padmavati
जब रत्नसेन को बाँध कर सूली देने के लिए लाया गया तो उसे देखकर सबने अनुभव किया कि यह कोई राजपुत्र है. वह अपने में डूबा हुआ पदमावती का नाम रट रहा था. महादेव और पार्वती पुन: भाट –भाटिनी का रूप धारण कर प्रकट हुए. भाट के रूप में महादेव ने राजा गंधर्वसेन को समझाया कि यह योगी नहीं राजा है. तुम्हारी कन्या के योग्य वर है. इसका राजा के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. बस उसके क्रोध में और उत्तेजना आ गई. योगियों का दल जूझने के लिए आगे बढ़ा. हनुमान आदि देवता भी उनकी सहायता के लिए प्रस्तुत थे.
भाट ने राजा को समझाने की कोशिश की, कि यह योगी चित्तौड़ का राजा रत्नसेन है. यह पदमावती के लिए ही योगी हुआ है. तुम्हारा तोता हीरामन ही इसे प्रेरित कर यहाँ ले आया है. हीरामन का नाम सुनते ही गंधर्वसेन ने स्थिति समझ ली. हीरामन बुलाया गया उसने भाट की बात का समर्थन किया. रत्नसेन के बंधन खोल दिये गये. गंधर्वसेन ने पदमावती का विवाह रत्नसेन से कर दिया. उसके अन्य योगी साथियों का विवाह भी पदमिनी कुमारियों से सम्पन्न हुआ. वे कुछ समय तक सिंहलद्वीप में रहे. विवाह का वर्णन अपने-आप में एक प्रसंग है –पदमावती और रत्नसेन दोनों के रूप के वर्णन में कवि की सतर्कता लक्ष्य की जा सकती है.
नागमती का सन्देश
इधर चित्तौड़ में वियोगिनी नागमती को राजा की प्रतीक्षा करते हुए एक वर्ष हो गया. उसे जीवन में केवल अन्धकार दिखाई देता था. उसके विलाप ने पशु-पक्षियों तक को विचलित कर दिया. अंत में कभी आधी रात के समय एक पक्षी ने नागमती के दुःख का कारण पूछाः ‘तू फिरि फिरि दाहै सब पाखी | कैही दुख रैन न लावसि आँखी ||’ नागमती का संदेश लेकर वह पक्षी सिंहलद्वीप जा पहुँचा और एक पेड़ पर उसने आश्रय लिया. एक दिन रत्नसेन शिकार खेलता हुआ उसी पेड़ के नीचे आकर रूका. तभी पक्षी ने नागमती का मर्म-संदेश कह सुनाया. रत्नसेन चित्तौड़ की स्मृति से विह्वल हो उठा.
कमल के रूप में पदमावती उदास हुई क्योंकि भ्रमर सरीखे रत्नसेन के मन में मालती जैसी नागमती की याद विकलता पैदा कर रही थी. रत्नसेन ने गंधर्वसेन से विदा ली. विदा के समय उसे अपार धन द्रव्य की प्राप्ति हुई. वह सोचकर प्रसन्न था कि समृद्धि के साथ चित्तौड़ लौट रहा है. वह समुद्र तट पर पहुँचा ही था कि स्वयं समुद्र याचक रूप में आ खड़ा हुआ और उसने उसके धन के 40वें भाग की याचिका की.
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राजा रत्नसेन तो प्रलोभन के दबाव में था. उसने असहमति व्यक्त की. रत्नसेन समुद्र की आधी दूरी भी तय नहीं कर पाया था. कि भयंकर तूफान आ गया. रत्नसेन के जहाज दिशा भूलकर लंका की ओर बह निकले. जहाँ विभीषण का एक राक्षस मछली मार रहा था उसने छलपूर्वक आश्वासन दिया कि वह रास्ते पर ला देगा. पर ले गया वह सब जहाजों को एक भयंकर समुद्र में – जहाँ से मुक्ति कठिन थी. जहाजों का संतुलन नष्ट हो गया. हाथी, घोड़े, मनुष्य डूबने लगे. तब समुद्र के राजपक्षी ने आकर रक्षा की. वह राक्षस को चंगुल में दबाकर उड़ गया. पर जहाज तब तक खण्ड-खण्ड हो चुके थे. जहाज के एक तख्ते पर राजा बह चला और दूसरे पर प्रतिकूल दिशा में रानी बह चली.
लक्ष्मी और पद्मावती का मिलन
पदमावती मूर्च्छा में ही वहाँ पहुंची जहाँ समुद्र की कन्या लक्ष्मी अपनी सहेलियों के साथ खेल रही थी. लक्ष्मी ने उसे इस स्थिति में पाया तो अपने घर ले गयी. उसके उपचार से पदमावती चेतना की स्थिति में आई तो रत्नसेन के लिए विलाप करने लगी. लक्ष्मी ने अपने पिता समुद्र से रत्नसेन का पता लगाने के लिए कहा.
राजा एक ऐसे निर्जन स्थान में पहुँचा जहाँ केवल मूँगों के टीले थे. वह कटार से अपना गला काटने ही जा रहा था कि समुद्र ब्राह्मण रूप में आ पहुँचा. उसने देखा कि राजा प्रलोभन के जाल से मुक्त है. तब उसने आश्वासन दिया कि वह पदमावती तक पहुँच सकेगा. जब राजा समुद्र के साथ घाट तक पहुँचा तो इस बार लक्ष्मी ने रत्नसेन के प्रेम की परीक्षा ली. वह पदमावती का रूप धारण कर रत्नसेन के सम्मुख थी, पर रत्नसेन ने मुँह फेर लिया. तब लक्ष्मी उसे पदमावती से मिलाने ले गई. अब वे वहाँ सहज हो चुके थे. उन्होंने समुद्र का आतिथ्य स्वीकार किया.
लक्ष्मी ने पदमावती को विदा के समय जो पान का बीड़ा दिया उसमें रत्न और हीरे थे. समुद्र ने अमृत, हंस, सोनहा पक्षी , शार्दूल और सोना बनाने का पारस पत्थर – ये पाँच रत्न भेंट किये. समुद्र की ओर से भेजे गये पथ प्रदर्शकों ने उन्हें निर्बाध रूप से जगन्नाथपुरी पहुँचा दिया. सेना के साथ राजा चित्तौड़ पहुँचा और वहाँ दोनों रानियों के साथ सुखपूर्वक रहने लगा. नागमती से नागसेन, पदमावती से कमलसेन –ये दो पुत्र राजा को हुए.
राघव चेतन का छल और राज्य निर्वासन
चित्तौड़ की राजसभा में राघव चेतन नाम का पंडित इसलिए विशेष चर्चित था कि उसे यक्षिणी सिद्ध थी. एक दिन राजा पंडितों से दूज की तिथि के बारे में जिज्ञासा की. राघव ने कह दिया ‘आज’ अन्य पंडितों ने कहा – ‘आज नहीं, कल’ राघव चेतन ने यक्षिणी के प्रभाव से उसी दिन दूज का चन्द्रमा दिखा दिया पर जब अगले दिन पुन: दूज की तिथि के लक्षण देखे गये तो पंडितों ने राजा का ध्यान राघव चेतन के छल की ओर आकृष्ट किया. राघव चेतन का भेद खुल गया और उसे देश से निर्वासन का दंड दिया गया.
पदमावती को जब इस घटना का पता चला तो वह भयभीत हुई कि ऐसे पंडित का असंतुष्ट या कुपित होना राज्य के लिए हितकर न होगा. उसने सूर्यग्रहण के बहाने बुलाकर उसे अपने हाथ का एक अमूल्य कंगन दान के रूप में दिया जिसके जोड़े का कंगन कहीं प्राप्त न था. पर जब पदमावती गवाक्ष से कंगन दे रही थी, उसकी झलक पाकर ही राघव चेतन अचेत हो गया.
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चेतना की स्थिति में उसने निश्चय किया कि वह दिल्ली के बादशाह तक यह सौन्दर्य –संवाद पहुंचाएगा वह जरूर ही पदमावती की प्राप्ति की कामना से चित्तौड़ पर आक्रमण करेगा और इस प्रकार राजा से बदला लिया जाएगा.
राघव चेतन सीधे दिल्ली पहुँचा और अलाउद्दीन के समक्ष उसने पदमावती के अद्वितीय सौन्दर्य का वर्णन किया. ऐसे अद्वितीय सौन्दर्य का परिचय पाकर अलाउद्दीन की वासना जगी उसने राघव चेतन का आदर- सत्कार किया और सरजा नामक एक दूत को चित्तौड़ भेजा.रत्नसेन को सम्बोधित पत्र में सीधे लिखा गया था – पदमावती को दिल्ली भेज दो.’ रत्नसेन ने क्रोधावेश में दूत को लौटा दिया. अलाउद्दीन ने बड़ी तैयारी से चित्तौड़ पर आक्रमण किया आठ वर्ष तक वह गढ़ को घेरे ही रहा, पर गढ़ न टूट सका.
अलाउद्दीन का प्रस्ताव
उधर गढ़ घिर जाने पर राजपूतों की स्त्रियाँ चिता सजाकर रहती थीं कि वे पुरूषों की पराजय के बाद शत्रु के हाथ न पड़े जौहर होने पर पदमावती की प्राप्ति की आशा नहीं की जा सकती थी तभी दिल्ली से हरेव लोगो के आक्रमण की सूचना मिली. अलाउद्दीन को लगा कि इस प्रकार तो दिल्ली ही मुझ से छीन जाएगी उसने अब रणनीति बदल दी. छलपूर्वक पुन:दूत से खला दिया – ‘बादशाह का पदमावती के लिए कोई आग्रह नहीं है. तुम अपने राज्य का भोग करो – साथ ही चंदेरी भी तुम्हारी है. समुद्र से जो पाँच रत्न तुमने प्राप्त किये हैं, उन्हें देकर अधीनता स्वीकार कर लो. राजा रत्नसेन को इस प्रस्ताव में अलाउद्दीन का कोई षड़यंत्र नहीं देखा.उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. अलाउद्दीन ने संदेश भेजा कि वह अगले दिन वह गढ़ देखने आ रहा है.
पद्मावती सुन्दरता देख अलाउद्दीन अचेत हुआ …
बादशाह के लिए राजसी भोजन का आयोजन किया गया. सरजा और राघव चेतन के साथ बादशाह आया. गोरा और बादल – इन विश्वासपात्र सरदारों ने राजा को सतर्क किया कि अलाउद्दीन के इस आगमन की कोई दूषित प्रेरणा भी हो सकती है. पर रत्नसेन ने इस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया. कई दिनों तक बादशाह ने रत्नसेन का आतिथ्य स्वीकार किया और इसी कर्म में एक दिन पदमावती के महल की ओर चला गया.
वहाँ एक से एक रूपवती स्त्रियाँ स्वागत की मुद्रा में खड़ी थीं. बादशाह ने राघव चेतन से ,जो छाया की भांति साथ लगा था, प्रश्न किया – इनमें पदमावती कौन है राघव ने कहा – ‘ये तो दासियाँ हैं. इनसे उसकी क्या समानता हो सकती हैं बादशाह एक दिन वहीं महल के सामने बैठकर रत्नसेन के साथ शतरंज खेलने लगा वहाँ उसने एक दर्पण भी इस आशय से रख लिया कि यदि पदमावती गवाक्ष पर आती है तो उसकी छाया-आकृति दर्पण में दिखाई दे जायगी. इस बीच कुतूहलवश पदमावती गवाक्ष पर आई और दर्पण में उसकी छाया देखकर बादशाह अचेत हो गया. राघव चेतन ने बहाना बना लिया कि बादशाह को सुपारी लग गई है.
रत्नसेन को बंदी बनाया गया
बादशाह ने राघव चेतन से उस देखे हुए रूप-रहस्य का वर्णन किया और राघव चेतन ने इस बात की पुष्टि की कि वही पदमावती थी. सहज होकर बादशाह ने राजा से विदा माँगी. राजा उसके साथ-साथ गया. हर फाटक पर बादशाह राजा को कुछ न कुछ देता जा रहा था. छठे फाटक पर मांडवगढ़ तथा सातवें पर चंदिरी दी. सातवाँ फाटक पार करते हुए राजा रत्नसेन को बंदी बना लिया गया और वह दिल्ली की कैद में तरह-तरह की यातनाएँ झेलता रहा. बादशाह की एक ही शर्त थी – पदमावती को देकर छुटकारा सम्भव ही. रत्नसेन इस पर कैसे सहमत हो सकता था. उसे अंधकूप में डाल दिया गया.
पदमावती के अपहरण की योजना
रत्नसेन को बंदी बनने से चित्तौड़ में सभी व्याकुल थे. नागमती पदमावती विलाप कर रही थीं. कुंभलनगर का राव देवपाल रत्नसेन से शत्रुता मानता था. वह परम ईर्ष्यालु था. उसने पदमावती के अपहरण की योजना बनाई और यह काम एक बूढ़ी दूती के हवाले किया. दूती पदमावती से मिली और उसने अपना परिचय ही छलपूर्वक दिया – कहा कि ‘मैं तुम्हारे बचपन की धाय हूँ’ इस पर वे गले मिलकर रोती रहीं.
फिर दूती ने पदमावती से कहना शुरू किया – ‘रत्नसेन तो गया. अपना यौवन क्यों उजाडती हो. कुंभलनेर के राव देवपाल के पास चलो ’ अब पदमावती को इस दुष्चक्र का ज्ञान हो गया और उसने दूती को प्रताड़ित कर भगा दिया. पदमावती रत्नसेन को मुक्त करने के लिए अनेक प्रकार के यत्न-दान-पुण्य करने लगी. यह संवाद जानकर अलाउद्दीन ने भी पुन: छल किया और एक युवती दूती को जोगिन के वेश में भेजा. उसने अपनी यात्राओं के अनुभव बताकर कहा कि वह रत्नसेन को सुलतान के बंदी गृह में देख आई है – उसे कठिन यातनाएँ दी जा रही हैं. पदमावती उसके साथ दिल्ली जाने-जाने को हुई कि अपने प्रिय को छुड़ा सके. पर सखियों ने रोक कर सलाह दी- ‘गोरा बादल के पास जाकर उनकी सहायता प्राप्त करो’.
पदमावती की दिल्ली यात्रा
रानी पदमावती गोरा बादल के घर गई. पदमावती के दुःख से वे स्वयं आकुल हो उठे. उन्होंने भी छल के विरूद्द छल की ही युक्ति लगाने की बात सोची. गोरा बादल ने सोलह सौ पालकियाँ सजाई. प्रत्येक पालकी में एक-एक सशस्त्र सैनिक को बिठाया सबसे मूल्यवान पालकी में एक लुहार बैठा. इस प्रकार वे यह प्रचारित करके चले कि पदमावती दिल्ली जा रही है. उसके साथ सोलह सौ सखियाँ हैं. दिल्ली पहुँचकर गोरा बन्दीगृह में पहुँचा और वहाँ के रक्षक अधिकारी को दस लाख रूपये भेंट देकर प्रार्थना की – ‘बादशाह से जाकर कहो कि रानी पदमावती सखियों के साथ आ गई हैं.
उसने अनुरोध किया है कि चित्तौड़ कर भण्डार और गढ़ की चाभी उसके पास है. यदि एक घड़ी के लिए वह राजा से मिल सके तो चाभी उसे सौंप कर महल में आ जाय.’ इस पर बादशाह ने रक्षक भेजे पर दस लाख की अन्यथा भेंट पाकर उन्होंने पालकियों को देखा ही नहीं. पदमावती को राजा से मिलने की आज्ञा प्राप्त हो गई. पालकी राजा के पास तक गई. उनमें से निकलकर लुहार ने बंधन काट दिए. राजा सशस्त्र घोड़े पर जा बैठा अन्य पालकियों में से भी सशस्त्र सैनिक निकले. गोरा बादल ने तलवारें खींच लीं और वे विजय के मन:स्थिति में राजा को लेकर चित्तौड़ की ओर चल पड़े.
सूचना मिलते ही बादशाह ने बड़ी फौज लेकर पीछा किया. तब हजार सैनिको को लेकर गोरा बादशाह की सेना के प्रतिरोध के लिए डट गया और बादल शेष सैनिकों साथ चित्तौड़ की ओर चला. गोरा ने बहुत समय तक प्रतिरोध किया पर अंत में वह अपने सहयोगियों सहित मारा गया . बादल रत्नसेन सहित चित्तौड़ पहुँच चुका था.
देवपाल से रत्नसेन का युद्ध और रत्नसेन की मृत्यु
चित्तौड़ पहुँच कर रत्नसेन ने देवपाल के कुटिल योजना के बारे में सुना. वह क्रोध से भर उठा. उसने सोचा, जब तक शाही सेना चित्तौड़ आती है, वह कुंभलनेर जाकर देवपाल को बाँध लाएगा. वह सेना लेकर कुंभलनेर पहुँचा. देवपाल ने उसे सीधे द्वंद्व युद्ध के लिए चुनौती दी . रत्नसेन ने चुनौती स्वीकार की .देवपाल ने रत्नसेन को विष बुझी सांग मारी जो नाभि को भेदकर पीठ की ओर जा निकली.
देवपाल का धड़ भी रत्नसेन के प्रहार से अलग हो गया. रत्नसेन ने उसका सिर काटकर बाँध लिया और चित्तौड़ की ओर चला. मार्ग में ही उसकी दशा बिगड़ गयी. उसने चित्तौड़गढ़ की रक्षा का भार बादल पर सौंप दिया. यह रत्नसेन के जीवन का अंत था. शव चित्तौड़ ले जाया गया. राजा के शव के साथ नागमती पदमावती दोनों रानियाँ सती हो गई. तभी बादशाह अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ को घेर लिया और अंततः चित्तौड़ पर अलाउद्दीन का प्रभुत्व स्थापित हो गया. एक अन्य वर्णन में ऐसा भी जिक्र मिलता है कि पद्मावती सहित अन्य स्त्रियों ने जौहर किया और अग्नि में प्रवेश कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर डाली.
यह ‘पदमावत’ की सीधी कहानी है पर इस कहानी में रूपकात्मक-प्रतीक योजना इस प्रकार घुली-मिली है कि कहानी का एक ही अर्थ जायसी के पाठकों को संतुष्ट नहीं कर पाता . जिस तर्क से पात्रों के व्यक्तित्व का विधान किया गया है, उसमें ही दूसरे अर्थ की सम्भावना सक्रिय होती है. कहानी जहाँ समाप्त होती हैं वहाँ एक उपसंहार भी है- हालाँकि पाठकों में इसकी प्रामाणिकता विवादास्पद बनी हुई है.
एक हृदयस्पर्शी प्रेम गाथा
हिन्दू परिवेश की प्रेम कथा और लोक प्रचलित भाषा में कही गई इस म्हाकाव्योचित कहानी में पदमावती ईश्वर की अद्वितीय सौन्दर्य-सत्ता का प्रतीक है, रत्नसेन अपनी गहरी प्रेम-व्याकुलता में जीवात्मा के लिए प्रतीक है, नागमती रत्नसेन और पदमावती के सम्बन्ध में पहले बाधा ही बनी हुई है – इस आशय से वह माया के लिए प्रतीक है. अलाउद्दीन भी माया का ही दूसरा रूप है और राघव चेतन शैतान का प्रतीक है. इस गूढ़ संकेत-प्रधान कहानी को जायसी इतने मार्मिक लगाव से कहते है कि कहानी का लौकिक अर्थ कहीं धुंधला नहीं पड़ता.
प्रेम कहानी प्रेम कहानी के रूप में भी उतनी ही हृदयस्पर्शी है, जितनी रूपक-वस्तु के रूप में गहरे अर्थ से समृद्ध दूसरी दृष्टि से, यह केवल प्रेम कहानी नहीं है, प्रेम और संघर्ष की मिली जुली कहानी है. इस प्रकार यह कहानी पंडितों के ही लिए नहीं, सामान्य जन के लिए भी है.
पद्मावती का जौहर व्रत और उस नायिका का अपने प्रियतम और पति के प्रतिअप्रतिम निष्ठा और समर्पण उसे राष्ट्र नायिका बनाती है. भारतीय नारी के इस रूप को चित्रित करते हुए जायसी ने अवधी भाषा में भारतीय जन मानस में प्रचलित देवी देवताओं से लेकर भारतीय ऐतिहासिक चरित्रों का सुन्दर मिश्रण किया है.
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बहुत ही बहतरीन तरीके से लिखी गयी पोस्ट है और मुझे लगता है के रानी पद्मावती के बारे ना सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया इनके शौर्य को पहचाने और रानी पद्मावती उनके लिए आदर्श बने
आपका बहुत- बहुत धन्यवाद!
सही कहा nice आर्टिकल सर वैल done
Very nice article sir thanks for sharing
bahut he accha likha hai aapne well done
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आपका हार्दिक आभार!
Thank You!