निःस्वार्थ सेवा हिंदी पौराणिक कहानी
प्रस्तुत कहानी श्री शिव पुराण से ली गयी है. गंगा के तट पर दानरूची नाम का एक विद्वान और दयालु ब्राह्मण रहता था. उसकी रूपवान और सुशील पत्नी भी उसी की तरह धार्मिक थी. दोनों ने अतिथि सेवा का व्रत ले रखा था.
दानरूची नित्य अतिथि को भोजन कराकर ही भोजन किया करता था. अतिथि के आने पर वह उसके विषय में कोई शंका या विकल्प नहीं रखता था. अतिथि से ज्ञान, ऐश्वर्य, स्वभाव अथवा जाति भी नहीं पूछता था. वह अत्यंत सरल स्वभावी था. अतिथि-सेवा वह अपना व्रत व कर्तव्य समझकर करता था, लोभ या यश अथवा प्रदर्शन के लिए नहीं.
एक दिन वह अतिथि की प्रतीक्षा करता रहा. भोजन का समय बीत गया, परन्तु कोई अतिथि नहीं आया. आकाश काले-काले बादलों से घिर गया. हिमालय से आनेवाली शीतल वायु कंपकंपी पैदा कर रही थी. संध्या समय तक अतिथि आगमन नहीं हुआ. उसने उपवास करने का विचार कर नारायण को स्मरण किया. उसकी पत्नी पति का अनुसरण करती थी. अतः उसने भी उपवास का निश्चय किया.
अग्निदेव ने उस ब्राह्मण की परीक्षा का विचार किया. योजना के अनुसार उन्होंने रूप बदल लिया. ब्राह्मण ने वृक्ष के नीचे अत्यंत कुरूप, सर्दी से कांपते हुए; सैकड़ों घावों, कीड़े झर रहे थे, से युक्त ’अरे बाप रे सर्दी’ चिल्लाते हुए एक चांडाल को देखा. ब्राह्मण ने मधुर वचनों से उसे सांत्वना दी और ठंड दूर करने के लिए अग्नि जला दी. आग तापने से जब उसकी कंपकंपी दूर हो गई तो ब्राह्मण ने उसे आदरपूर्वक भोजन के लिए निमंत्रित किया.
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उस दिन चाण्डाल ने तपस्वी से कहा, “हे द्विजश्रेष्ठ, मैं चाण्डाल हूँ. मुझे पशु-पक्षियों की तरह अन्न यहीं लाकर डाल दीजिए. मैं इसी योग्य हूँ.”
ब्राह्मण ने उससे कहा, “मैं आपकी जाति का नहीं, आपकी पूजा करता हूँ. आत्मा ही श्रेष्ठ है और वह सभी प्राणियों में विद्दमान है. मैं उसी परम शिव आत्मा की पूजा करता हूँ. कृपया मेरे घर में भोजन कर मुझे पवित्र कीजिए.”
ब्राह्मण के वचनों से प्रसन्न होकर वह चाण्डाल उसके घर गया. ब्राह्मण ने अत्यंत भक्तिभाव से उसकी पूजा की. शुद्ध भाव और शुद्ध मन से विधिवत आतिथ्य किया.
भोजन करके प्रसन्न होकर अतिथि देवता अपने अग्नि रूप में प्रकट हुए. उसे मनोवांछित ऐश्वर्य प्रदान किया.
वस्तुतः सम्पूर्ण सेवा की भावना का होना बहुत जरुरी है. प्राणिमात्र में समान आत्मतत्व के दर्शन करना बहुत आवश्यक होता है. इसी को ‘आत्मौपम्य’ भाव कहा जाता है. दूसरे को अपना समझना इसका पहला चरण है. इसका अगला चरण है समस्त प्राणियों में स्वयं का दर्शन करना. इस आत्मौपम्य भाव से ही अहिंसा और करूणा की भावना का विकास होता है. इस भावना के पश्चात् ही सेवाभाव संभव है.
प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुरूप सेवा कार्य करता है. जब वह दूसरे में आत्मभाव के दर्शन करता है तो उसके मन के सारे संदेह दूर हो जाते हैं. वह जाति, वर्ण, रंग और रूप से ऊपर उठ जाता है. आज ‘सेवा’ शब्द भी अपनी मूल्यवत्ता और चमक खो रहा है. कारण, आज सेवा भी स्वार्थावेष्टित हो गई है. सभी अपने आपको देश और समाज के सेवक कहते या समझते हैं; परन्तु अन्य आत्मा के साथ तादात्म्य के बिना अथवा समता के भाव को आत्मसात किए बिना सेवाव्रत संभव नहीं. समता के भाव से ही सच्ची सेवा की जा सकती है.
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Arvind Kumar says
Purani kahani sunne ki feeling hi special hoti h.
Thanks for sharing with us.