यह कहानी Gaddari Ka Puraskaar Desh Bhakti Hindi Story एक ऐसी देशभक्ति कहानी है जिसमें देश के लिये सर्वोत्तम उत्सर्ग का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है.
अप्रैल 1897 ईo में पूना शहर को महामारी प्लेग की काली छाया ने घेर रखा था. शहर की मुस्कान को मानो ग्रहण लग गया था. चारों ओर उदासी छाई हुई थी. हर व्यक्ति महामारी के चपेट में आने वाले खतरे से बोझिल था. मुर्दा घरों पर मुर्दों की लाइन लगी थीं. कई घरों में तो शवों को उठाने वाला भी कोई नहीं बचा था. लोग शहर छोड़-छोड़ कर अन्यत्र भाग रहे थे.
मौत के दैवी-तांडव के बीच एक और खेल चल रहा था. वह खेल था महामारी से ग्रस्त जनता के लूट का खेल. वह खेल था रोग के कीटाणुओं को मरने के लिये दवा छिडकने के बहाने घरों में घुसकर जवान बहू-बेटियों के साथ अभद्रता और छेड़-छाड़ का खेल. वह खेल था विरोध करने पर घरों को आग लगाने का खेल. आखिर यह खेल कौन खेल रहा था?
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प्लेग महामारी पर काबू पाने के लिये मिस्टर वाल्टर चार्ल्स रैंड को पूना का प्लेग कमिश्नर नियुक्त किया गया था. रैंड महलालची, क्रूर और अत्याचारी था. उसने कर्मचारियों और सैनिकों की ऐसी टीम तैयार की हुई थी जो उसके इशारे पे काम करे. अत: उसके कर्मचारी प्लेग की गिल्टी को देखने के बहाने औरतों के वस्त्र उतरवा लेते थे और अभद्रता की सीमा लाँघ कर उन्हें बेइज्जत करते थे. उनके जेवर उतरवा लेते थे. यह खेल प्लेग कमिश्नर रैंड खेल रहा था.
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लार्ड सांडर्स को कड़ा पत्र लिखा. उन्होंने इस पत्र में रैंड के अत्याचारों को तुरंत बंद करने की मांग की थी. इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तिलक के ‘केसरी’ पत्र के ओजस्वी लेखों ने युवकों में नई चेतना भर दी. उनकी प्रेरणा से महाराष्ट्र में देश की आजादी हेतु अनेक गुप्त संगठन कार्य कर रहे थे. ऐसे ही एक संगठन के सदस्य थे – दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर, इन दोनों का छोटा भाई वासुदेव चापेकर एवं महादेव रानाडे. वासुदेव और रानाडे की आयु अभी केवल सत्रह वर्ष थी. एस युवा दल ने घोषणा कर दी – “पूना की जनता को रैंड के अत्याचारों से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाएगी.”
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दामोदर चापेकर ने रैंड के कोचवान से दोस्ती गांठ ली. उससे नौकरी मांगने के बहाने से रैंड के बारे में काफी जानकारी हासिल कर ली. वासुदेव चापेकर ने रैंड के यार-दोस्तों, रिश्तेदारों और कार्यक्रमों का ब्यौरा तैयार किया. महादेव रानाडे ने शस्त्रों का प्रबंध किया. इस प्रकार यह युवा दल तीन माह तक पूरी तैयारी में जुटा रहा.
22 जून, 1897 ई. महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण को पच्चीस वर्ष पूरे हो चुके थे. पूना के गवर्नमेंट हाउस में राज्यारोहण की हीरक जयंती का कार्यक्रम था. कमिश्नर रैंड भी इसमें उपस्थित था. यह युवा दल घात लगाये बाहर बैठा था और उत्सव की समाप्ति का इन्तजार कर रहा था.
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रात्रि के बारह बजकर दस मिनट पर उत्सव समाप्त हुआ. रैंड बाहर निकला और बग्घी पर सवार होकर घर की ओर जाने लगा. युवा दल ने भी लुकते-छिपते आगे बढ़ते हुए बग्घी से कुछ दूरी बनाए रखी. जैसे ही बग्घी सुनसान से इलाके में पहुंची दामोदर चापेकर रैंड की बग्घी पर चढ़ा और उसे गोलियों का निशाना बना डाला. उसके पीछे केवल एक बग्घी और थी. बालकृष्ण चापेकर ने स बग्घी में बैठे अंग्रेज अधकारी आयरिष्ट की हत्या कर दी. यह क्रांतिकारी दल अपना काम करके सुरक्षित भाग निकला.
अगले दिन रैंड की हत्या का समाचार जैसे ही शहर में फैला, शहर के लोगों ने चैन की साँस ली. अपराधियों को पकड़ वाने वाले को बीस हजार रूपये के इनाम की घोषणा कर दी गई. उन दिनों २० हजार रूपये बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. शहर की नाकेबंदी कर खुफिया पुलिस को सतर्क कर दिया गया.
चापेकर बन्धुओं के दल में गणेश शंकर द्रविड़ और रामचन्द्र द्रविड़ दो सगे भाई थे. उन्होंने इनाम की लालच में रैंड की हत्या का भेद पुलिस को बता दिया. घर का भेदी लंका डाहे. अत: वासुदेव चापेकर गिरफ्तार कर लिए गए. 18 अप्रैल,1898 को इन्हें फाँसी दे दी गई. बालकृष्ण चापेकर भूमिगत हो गए बाद में इन्हें भी आत्मसमर्पण करना पड़ा.
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एक भाई को फाँसी लग चुकी थी. दूसरे के लिये फाँसी का फंदा तैयार था. यह विचार मन में आते ही वासुदेव बेचैन हो उठता था. एक दिन वह महादेव रानाडे से मिला और बोला – “मेरे दोनों भाइयों को द्रविड़ भाइयों ने पकड़वाया है. उनकी फाँसी के लिये वे ही जिम्मेदार हैं. मैं उन्हें इस गद्दारी की सजा अवश्य दूँगा. क्या तुम मेरा साथ दोगे?”
“वासुदेव ! हमने देश के लिये ही मरने और जीने की कसम खाई थी. मैं उसे भूला नहीं हूँ. हम लोग उन्हें गद्दारी का मजा अवश्य चखाएंगे “
महादेव रानाडे से बात करके वासुदेव अपने घर पहुंचा. माँ के चरण स्पर्श करता हुआ माँ से बोला – “माँ मुझे आशीर्वाद दीजिए.”
“माँ भौंचक्की सी होकर पूछ बैठीं – “बेटा कैसा आशीर्वाद? तू क्या करने जा रहा है?”
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माँ, मैं अपने भाइयों को पकडवाने वाले को इनाम देने जा रहा हूँ.”
“पकडवाने वाले को…… इनाम ? मैं समझ गई, तू जरूर कोई गलत कार्य करने जा रहा है. बेटा इनाम और सजा तो ऊपर वाले के हाथ में है. हम उसे क्या सजा देंगे?”
“लेकिन माँ, ऊपर वाला स्वयं तो सजा देने आता नहीं है वह भी किसी न किसी को भेजता है, तो मुझे भी ऊपर वाले का आदेश है. अत: माँ मुझे आशीर्वाद दो.”
यह कहते हुए वासुदेव ने अपनी माँ का हाथ पकड़ा, उसे अपने सर पर रखा और चल दिया. माँ बिलखते हुए हृदय की पीड़ा को थामे उसे आशीर्वाद देती हुई आखें फाड़ कर उसकी ओर निहारती ही रह गई.
8 फरवरी,1899 ई. महादेव रानाडे और वासुदेव ने पंजाबी वेश धारण किया और द्रविड़ बन्धुओं के घर संदेश पहुंचा दिया कि उन्हें पुलिस स्टेशन बुलवाया है. दोनों भाइयों ने सोचा – “जरूर इनाम के बारे में बात करनी होगी और वह घर से निकल पड़े. घर से थोड़ी ही दूर चले थे कि दनादन गोलियों की बौछार से द्रविड़ भाइयों को वहीँ ढेर कर दिया.” देश के गद्दारों का अंत देख दोनों बहुत खुश थे. दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया.
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वासुदेव चापेकर ने 8 मई तथा रानाडे ने 10 मई, 1899 को फाँसी का फन्दा चूमा. वासुदेव के बड़े भाई बालकृष्ण चापेकर को उसके चार दिन बाद 12 मई को फाँसी पर लटकाया गया.
जिस माँ ने अपने तीन बेटों को फाँसी के फंदे पर झूलते हुए देखा हो, उस माँ के हृदय की पीड़ा का अनुमान लगाना कठिन है. राष्ट्र ऐसी वीर माताओं के आगे नतमस्तक है. राष्ट्र ऐसे वीर बालकों का सदैव ऋणी रहेगा. आज हम जिस आजाद हवा में सांस ले रहे हैं, न जाने कितने वीर सपूतों के बलिदानों का यह परिणाम है. सभी जाने- अनजाने वीर देशभक्तों को सादर नमन!
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