Bhojan Ka Daan Hindi Story भोजन का दान हिंदी कहानी
एक गाँव में गरीब आदमी रहता था. आदमी का नाम मंगल था. वह बिलकुल अकेला था. बैलगाड़ी लेकर जंगल जाता और लकड़ियाँ काट कर उस पर लाद लाया करता था. शहर में लकड़ियाँ बेचने से जो कुछ भी मिल जाता था, उसी से वह अपने जीवन का निर्वाह करता था.
उस दिन दोपहर के बाद का समय था. मंगल बैलगाड़ी पर लकड़ियाँ लाद कर शहर की ओर जा रहा था. बाग़ में उसे एक ऐसा आदमी मिला, जो पैदल चलते-चलते थक गया था. वह आदमी शहर का रहने वाला था. उसका नाम सूरज था.
सूरज ने मंगल से कहा, “भाई, मैं बहुत थक गया हूँ. यदि तुम शहर जा रहे हो, तो कृपा करके मुझे अपनी बैलगाड़ी पर बिठा लो.”
मंगल बोला, “हां, मैं शहर जा रहा हूँ. आओ, बैठ जाओ बैलगाड़ी पर. एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य की सहायता करनी ही चाहिए.”
सूरज लगाड़ी पर बैठ गया, दोनों रास्ते भर प्रेम से बात करते रहे, एक- दूसरे को अपने जीवन का हाल-चाल बताते रहे. जब शहर आ गया तो सूरज ने मंगल को अपने घर का पता बताते हुए कहा, “लकड़ियाँ बेचने के बाद मेरे घर पर आना. मैं चाहता हूँ आज तुम मेरे अतिथि बनो. तुम्हारा आदर-सत्कार करने से मुझे सुख प्राप्त होगा.”
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मंगल ने वचन दे दिया. सूरज प्रसन्न होकर अपने घर चला गया और उत्सुकतापूर्वक मंगल की राह देखने लगा.
मंगल जब लकड़ियाँ बेच चुका, तो संध्या होने के बाद सूरज के घर गया. सूरज ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया. उसे अच्छा से अच्छा खाना खिलाया और उसके सोने का सुंदर प्रबंध किया. रात में दोनों देर तक आपस में बातचीत करते रहे.
सूरज और मंगल दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गई. मंगल जब भी शहर जाता था, सूरज से अवश्य मिला करता था. कभी-कभी रात में उसके घर रह भी जाता था.
पूर्णिमा का दिन था. मंगल लकड़ियाँ बेचने के बाद सूरज के घर रूक गया था. रात के 8-9 बज रहे थे. आकाश में पूर्णिमा का चन्द्रमा हँस रहा था. धरती पर चारों ओर दूध की धारा की तरह बह रही थी. पेड़-पौधे उस धारा में नहा कर सफेद-से हो गये थे.
सूरज ने मंगल से कहा, “मंगल, आओ चलो मेरे साथ चलो. आज मैं तुम्हें एक ऐसा दृश्य दिखाउंगा कि देखने की कौन कहे, तुमने कभी उसके बारे में सोचा तक नहीं होगा.”
मंगल बोला, “पर पहले यह तो बताओ, वह कैसा दृश्य है और उसमे क्या विशेषता है?”
सूरज ने उत्तर दिया, “देखोगे तो आश्चर्य में डूब जाओगे. मेरे नगर के राजा का एक प्रधान खजांची है. उसका सिधांत है, खाना-पीना और आनन्द से रहना. वह कहता है, एक-न-एक दिन मनुष्य को सब कुछ छोड़कर जाना पड़ता है. अतः संग्रह से कोई लाभ नहीं है. मनुष्य को अपने जीवन में ही, अपनी उपार्जित वस्तुओं का उपभोग के लेना चाहिए.”
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यों तो खजांची प्रतिदिन बड़े ठाट-बाट से भोजन करता है, पर पूर्णिमा की रात में वह जिस ढंग से भोजन करता है, वह देखने योग्य होता है, पर उसका भोजन सोने के बर्तनों में तैयार किया जाता है वह जिन बर्तनों में भोजन करता है वह भी सोने के ही होते हैं. सोने के ही चम्मच, सोने की ही प्यालियाँ और सोने के ही गिलास होते हैं. वह जिस चाट पर बैठकर भोजन करता है वह भी सोने के ही होते हैं खजांची नीचे से लेकर ऊपर तक पीले परिधानों से सुशोभित रहता है. उसके शरीर पर भी सोने के अमूल्य आभूषण रहते हैं.
उसके नौकर-चाकर और उसका रसोईया भी पीले वस्त्र तथा स्वर्ण आभूषण धारण किये रहता है. चांदनी रात में खजांची के घर ऐसी स्वर्ण आभा बिखरती रहती है कि मनुष्य का मन ही नहीं, देवताओं का मन भी ललक उठता होगा, लालच से भर उठता होगा. नगर के बड़े-अमीर भी उस अनुपम दृश्य को देखने के लिए वहाँ इकट्ठे होते हैं.
सूरज के कथन को सुनकर मंगल के मन में भी लालसा उत्पन्न हो उठी. वह खजांची के भोजन के दृश्य को देखने के लिए सूरज के साथ उसके घर गया, वहाँ मेला-सा जुटा हुआ था.
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खजांची तरह-तरह के सोने के आभूषणों और पीले परिधानों से सज्जित होकर भोजन के लिए सोने के पाट पर बैठा. उसके सामने जब सोने के पात्रों में तरह-तरह के व्यंजन परोसे गये, तो उस दृश्य और उन व्यंजनों को देखकर मंगल अपने मन को अपने वश में नहीं रख सका, वह धीरे से सूरज से बोला, “भाई सूरज , सचमुच यह तो बड़ा अपूर्व दृश्य है. काश, मैं भी एक दिन ऐसी ढंग से ऐसी तरह का भोजन करता, पर क्या कभी सम्भव हो सकता है? नहीं, इस गरीब के जीवन में यह कभी नहीं हो सकता.”
हालांकि मंगल ने बहुत ही धीमे स्वर में अपनी बात सूरज से की थी, पर फिर भी खजांची के कानों में जा पड़ी. खजांची ने दृष्टि उठा कर मंगल की ओर देखा. उसे मंगल के मुखमंडल पर कुछ अनूठापन-सा दिखाई पड़ा, उसे लगा कि इस मनुष्य के शरीर के भीतर कोई चमत्कार है.
खजांची जब भोजन कर चुका, तो उसने मंगल को अपने पास बुलाया. उसने उसकी ओर देखते हुए कहा, “मैंने तुम्हारी बात सुन ली है, तुम पूर्णिमा की रात में मेरे ही समान भोजन करना चाहते हो न! इसके लिए तुम्हें कठोर तप करना पड़ेगा. क्या तुम इसके लिए तैयार हो?”
मंगल बोला, “श्रीमान, यदि एक दिन मुझे आपके समान भोजन करने का अवसर प्राप्त हो, तो मैं तप क्या, पहाड़ भी उठाने के लिए तैयार हूँ.”
खजांची सोचता हुआ बोला, “नहीं, तुम्हें पर्वत नहीं उठाना पड़ेगा तुम्हें तीन वर्षों तक खेतों में काम करना होगा.”
मंगल बोल उठा, “श्रीमान, मैं अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए आपके खेतों में काम करने के लिए तैयार हूँ, पर तीन वर्षों के बाद मुझे आपके समान भोजन करने का अवसर प्राप्त होगा न !”
खजांची ने दृढ़तापूर्वक कहा, “अवश्य प्राप्त होगा, अवश्य प्राप्त होगा.”
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मंगल लकड़ियाँ काटना छोडकर खजांची के खेतों में काम करने लगा. वह दिन भर खेतों में पसीना भाता और रात में मजदूरों के साथ खा-पीकर सो जाया करता था. वह हर एक मजदूर से प्रेम तो करता ही था, बीमार मजदूरों की सेवा भी किया करता था. मजदूर उसके मधुर भाषण और मृदु व्यवहार पर मुग्ध थे. वे उसे अपना मसीहा मानते थे.
धीरे-धीरे तीन वर्ष बीत गये. मंगल की लगन, मेहनत और उसके प्रेम से तीन वर्षों में खजांची के खेतों में इतना अनाज पैदा हुआ कि उसके लिए रखना भी कठिन हो गया. खजांची मंगल के श्रम पर मुग्ध हो गया. साथ ही उसके मन में विचार पैदा हुआ, यह मनुष्य साधारण मनुष्य नहीं है. अलौकिक है, चमत्कारिक है.
तीन वर्षों के बाद मंगल पुनः खजांची के सामने उपस्थित हुआ. खजांची ने प्रेम-भरे स्वर में कहा, “मंगल, मैं तुम्हारी मेहनत पर बहुत प्रसन्न हूँ. मैं 24 घंटे के लिए तुम्हें अपने भवन का मालिक बना रहा हूँ. तुम्हें अधिकार होगा, तुम चाहे जो करो, चाहे जैसा भोजन करो.”
मंगल ने निवेदन किया, “श्रीमान, मैं आपके भवन का मालिक बन कर क्या करूंगा? मैं तो केवल एक दिन आपके समान भोजन करना चाहता हूँ.”
खजांची बोला, “पर तुमने जिस लगन और मेहनत से काम किया है, उसे देखते हुए तुम्हारी यह मजदूरी भी बहुत कम है. तुम 24 घंटे के लिए मेरे भवन के मालिक हो.”
खजांची ने अपने सभी नौकरों को बुलाकर आदेश दिया, “मंगल 24 घंटे के लिए मेरे भवन का मालिक है. उसकी आज्ञाओं का पालन तुम लोगों को उसी तरह करना होगा, जिस तरह मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो.”
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भवन का मालिक बनने पर मंगल किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए. बस, उसे एक ही बात याद थी- “कल पूर्णिमा की रात है. मैं खजांची के समान ही भोजन करूंगा. मेरी इच्छा पूरी होगी, मेरा जीवन धन्य बनेगा.”
दूसरे दिन पूर्णिमा की रात थी. चांदनी खिली हुई थी. मंगल खजांची के समान ही सज-धज कर सोने के पाट पर भोजन करने के लिए बैठा. उसके सामने सोने के पात्रों में तरह-तरह के व्यंजन रखे गये. वह खाने ही जा रहा था कि, उसे एक बौद्ध भिक्षु दिखाई पड़ा. भिक्षु ने मंगल की ओर देखते हुए कहा, “बुद्धम् शरणम् गच्छामि.”
मंगल के हृदय के तार बज उठे, हृदय के भीतर दिव्य प्रकाश पैदा हो उठा- उस प्रकाश से अपने आप को उसने देखा- सारा विश्व उसके भीतर है, सारा ब्रह्माण्ड उसके भीतर है और सारे प्राणी उसके भीतर हैं.
मंगल ने बिना किसी मोह के अपना भोजन भिक्षु कोदान कर दिया. खजांची आश्चर्यचकित हो उठा. उसने आश्चर्य-भरे स्वर में कहा, “मंगल, तुमने यह क्या किया? जिस भोजन के लिए तुमने तीन वर्षों तक कठिन श्रम किया, उसे तुमने बौद्ध भिक्षु को दे दिया?”
मंगल बोला, “मैंने ठीक ही किया है श्रीमान् ! जो मैं हूँ, वह बौद्ध भिक्षु भी है. मैंने भोजन किया या बौद्ध भिक्षु ने किया एक ही बात है.”
खजांची मंगल के कथन पर मुग्ध हो उठा. वह बोला, “मंगल, मैं सदा-सदा के लिए तुम्हें अपने घर का मालिक बना रहा हूं, पर मंगल ने मालिकाना भी उस बौद्ध भिक्षु को दान में दे दिया.”
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मंगल के इस भोजन दान की खबर राजा के कानों में पड़ी. उसने मंगल के त्याग पर प्रसन्न होकर उसे अपना पूरा राज्य दे दिया. पर मंगल ने राजा के राज्य को भी बौद्ध भिक्षु को दान में दे दिया.
बौद्ध भिक्षु मुस्कराता हुआ बोला, “इस मनुष्य की मेहनत और लगन पर प्रसन्न होकर भगवान बुद्ध ने इसे अपनी शरण में ले लिया है, जो प्राणी भगवान बुद्ध की शरण में जाता है, उसे ब्रह्माण्ड का राज्य भी तुच्छ होता है.”
मंगल के त्याग का प्रभाव खजांची और राजा के मन पर भी पड़ा. वे दोनों भी अपना सब कुछ छोड़ कर बौद्ध भिक्षु बन गये, धर्मसंघ में सम्मिलित हो गये.
एक मनुष्य को दूसरे की सहायता करनी ही चाहिए. श्रम और लगन की दृढ़ता से मनुष्य अपनी मंजिल पर पहुंचता है. श्रम, सेवा और त्याग ही मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है. परिश्रमी और प्रेमनिष्ठ मनुष्य को ईश्वर की कृपा अवश्य मिलती है. आज लोगों में प्रेम की जगह घृणा का भाव ज्यादा बढ़ गया है. यह मानवता के खिलाफ है. अपने भूखे रहकर भोजन क दान करनेवाले विरले मिलते हैं.
Rajeev Moothedath says
Nice story with a great moral…
Irfan says
Wow Amazing Article. Thanks for sharing us this knowledge. Your Article is really helpful for me. Thank you so much