Three Great Stories Raja Raghu Raja Dileep श्रेष्ठ कहानी
Three Great Stories Raja Raghu Raja Dileep: ये तीनो कहानियां भारत के पौराणिक ग्रंथों से संकलित की गयी हैं.
गौ सेवा का फल
अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप के कोई संतान नहीं थी. एक बार वे अपनी पत्नी के साथ गुरु वसिष्ठ के आश्रम गए. गुरु वसिष्ठ ने उनके अचानक आने का प्रयोजन पूछा. तब राजा दिलीप ने उन्हें अपने पुत्र पाने की इच्छा व्यक्त की और पुत्र पाने के लिए महर्षि से प्रार्थना की.
महर्षि ने ध्यान करके राजा के निःसंतान होने का कारण जान लिया. उन्होंने राजा दिलीप से कहा – “राजन! आप देवराज इन्द्र से मिलकर जब स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रहे थे तो आपने रास्ते में खड़ी कामधेनु को प्रणाम नहीं किया. शीघ्रता में होने के कारण आपने कामधेनु को देखा ही नहीं, कामधेनु ने आपको शाप दे दिया कि आपको उनकी संतान की सेवा किये बिना आपको पुत्र नहीं होगा.”
महाराज दिलीप बोले – “गुरुदेव! सभी गायें कामधेनु की संतान हैं. गौ सेवा तो बड़े पुण्य का काम है, मैं गायों की सेवा जरुर करूँगा.”
गुरु वसिष्ठ ने कहा – राजन! मेरे आश्रम में जो नंदिनी नाम की गाय है, वह कामधेनु की पुत्री है. आप उसी की सेवा करें.”
महाराज दिलीप सबेरे ही नंदिनी के पीछे- पीछे वन में गए, वह जब खड़ी होती तो राजा दिलीप भी खड़े रहते, वह चलती तो उसके पीछे चलते, उसके बैठने पर ही बैठते और उसके जल पीने पर ही जल पीते. संध्या के समय जब नंदिनी आश्रम को लौटती तो उसके ही साथ लौट आते. महारानी सुदाक्षिणा उस गौ की सुबह शाम पूजा करती थीं. इस तरह से महाराज दिलीप ने लगातार एक महीने तक नंदिनी की सेवा की.
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जिस दिन महाराज को नंदिनी की सेवा करते हुये एक महीना पूरा हो रहा था, उस दिन महाराज वन में कुछ सुन्दर पुष्पों को देखने लगे और इतने में नंदिनी आगे चली गयी. दो – चार क्षण में ही उस गाय के रंभाने की बड़ी करूँ ध्वनि सुनाई पड़ी. महाराज जब दौड़कर वहां पहुंचे तो देखते हैं कि उस झरने के पास एक विशालकाय शेर उस सुन्दर गाय को दबोचे बैठा है शेरकर मारकर गाय को छुडाने के लिए राजा दिलीप ने धनुष उठाया और तरकश से बाण निकालने लगे तो उनका हाथ तरकश से ही चिपक गया. आश्चर्य में पड़े राजा दिलीप से उस विशाल शेर ने मनुष्य की आवाज में कहा – “राजन! मैं कोई साधारण शेर नहीं हूँ. मैं भगवान शिव का सेवक हूँ. अब आप लौट जाइए. मैं भूखा हूँ. मैं इसे खाकर अपनी भूख मिटाऊंगा.”
महाराज दिलीप बड़ी नम्रता से बोले – ” आप भगवान शिव के सेवक हैं, इसलिए मैं आपको प्रणाम करता हूँ. आपने जब कृपा करके अपना परिचय दिया है तो आप इतनी कृपा और कीजिये कि आप इस गौ को छोड़ दीजिये और अगर आपको अपनी क्षुधा ही मिटानी है तो मुझे अपना ग्रास बना लीजिये.”
उस शेर ने महाराज को बहुत समझाया, लेकिन राजा दिलीप नहीं माने और अंततः अपने दोनों हाथ जोड़कर शेर के समीप यह सोच कर नतमस्तक हो गए कि शेर उनको अभी कुछ ही क्षणों में अपना ग्रास बना लेगा.
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लेकिन उसी वक़्त आकाश से पुष्प की वर्षा होने लगी.
तभी नंदिनी ने मनुष्य की आवाज में कहा – ” महाराज! आप उठ जाइए. यहं कोई शेर नहीं है. सब मेरी माया थी. मैं तो आपकी परीक्षा ले रही थी. मैं आपकी सेवा से अति प्रसन्न हूँ.”
इस घटना के कुछ महीनो बाद रानी गर्भवती हुई और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. उनके पुत्र का नाम रघु था. महाराज रघु के नाम पर ही रघुवंश की स्थापना हुई. कई पीढ़ियों के बाद इसी कुल में भगवान श्री राम का अवतार हुआ. महाराज रघु के जीवन से संबंधित दो कथाएं नीचे दी रही है.
बलिदानों की होड़
महाराज रघु ने महर्षि वशिष्ठ के द्वारा सरयू के तट पर अपने शत्रुओं को पराजित करने के लिए देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया. महर्षि वशिष्ठ ने जब वेदमंत्रों से अग्निदेव का आह्वान किया तो उन्हें तुरंत बोध हुआ कि अग्निदेव यज्ञ की पूर्णाहुति में मानव बलि चाहते हैं.
यह सुनकर सभी शंकाकुल दृष्टि से एक-दूसरे को देखने लगे और प्रश्न उठा कि ”कौन अपनी बलि देगा?”
महामात्य ने खड़े होकर कहा- “इस देश के लिए बलि देने का सर्वप्रथम अधिकार मेरा है.”
“नहीं, आप की परिपक्व दूरदर्शिता की राज्य को आवश्यकता हैं. वृद्धों की छत्रछाया चाहिए. मैं अपनी बलि दूंगा,” एक प्रौढ़ नागरिक ने कहा.
“नहीं, देश के लिए बलि देने का काम सदैव नई पीढी का होता है. आपका संरक्षण राष्ट्र को चाहिए,बलि मैं दूंगा,” एक तरूण ने कहा.
तभी यज्ञ-कुंड में शांत अग्नि की लपेटें तत्काल प्रदीप्त हुई और आकाशवाणी हुई, ”बलिदानों की होड़ से बलिदान की चाह पूरी हुई.”
अग्निदेव ने प्रसन्न होकर महाराज रघु को विजयश्री का आशीर्वाद देते हुए कहा, “जिस राष्ट्र के पास इतने बलिदान हों, उसे कौन परास्त कर सकता है?”
दान एवं त्याग
अयोध्या नरेश रघु ने विश्वजीत नामक यज्ञ में सर्वस्व दान में दे दिया. अतः जब महर्षि वरतंतु के शिष्य कौत्स उनके पास आये तो स्वर्णमात्र के आभाव में महाराज ने मिट्टी के पात्र में अर्घ्य रखकर ऋषि का स्वागत-समादार किया.
ऋषि कौत्स यद्यपि महाराज रघु के विपुल सम्पत्ति, वैभव और उनकी अपार दानशीलता से परिचित थे, किन्तु उनकी वर्तमान स्थिति का अनुमान करके उन्हें अपना मनोरथ प्रकट करने में संकोच हुआ.
महाराज के पुनः-पुनः अनुनय-विनय करने का कौत्स ने कहा- “राजन गुरूद्क्षिणा के रूप में मुझे चौदह कोटि स्वर्ण मुद्रायें गुरूदेव को भेंट करने का आदेश हुआ है. उसी अभिलाषा की पूर्ति के लिए मैं आप की शरण में आया था. किन्तु इसके लिए उपयुक्त अवसर न जानकर मैं अब अन्यत्र चला जाऊँगा. कृपया मुझे अन्यत्र जाने की अनुमति दें.”
महाराज रघु ने कौत्स को अन्यत्र जाने से रोकते हुए कहा- “विप्रवर आप दो चार दिन यहीं अतिथिशाला में विश्राम करें, मैं स्वर्ण मुद्राओं का प्रबंध अवश्य करूंगा.”
फिर महाराज रघु ने विचार किया- इस धरा पर तो इतनी स्वर्ण मुद्राओं की व्यवस्था असंभव है, अतः धनाधिपति कुबेर की राजधानी पर आक्रमण करके उसे धन उपलब्ध करना होगा. प्रात:काल ऐसा करने का निश्चय कर उन्होंने शस्त्रों से सुसज्जित अपने युद्धरथ में ही रात्रि व्यतीत की.
किन्तु उनके प्रस्थान के पूर्व ही उनकी अज्ञेय कीर्ति गाथा के अनुरूप धनाधिपति कुबेर ने रातों-रात उनके कोष-गृह को स्वर्ण मुद्राओं की वृष्टि से पूरा का पूरा भर दिया. अब दानवीर रघु सभी स्वर्ण मुद्रायें कौत्स को देना चाहते थे, क्योंकि यह अपार स्वर्ण राशि उन्हीं के निमित्त थी.
त्यागवीर कौत्स गुरू दक्षिणा के रूप में चौदह कोटि स्वर्ण मुद्राओं से अधिक एक भी मुद्रा स्वीकार नहीं करना चाहते थे. दान और त्याग की ऐसी अप्रतिम स्पर्धा के कारण वे दोनों विभूतियाँ अयोध्यावासियों द्वारा प्रशंसित हुई.
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